जपु जी साहिब – गुरप्रसादी कथा

ੴ सतिनामु सतिगुर प्रसादि ॥

 

धन्य धन्य सति पारब्रह्म परमेश्वर

धन्य धन्य गुर, गुरू, सतिगुरू, गुरबाणी, सतिसंगत, सतिनाम,

धन्य धन्य श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी,

धन्य धन्य गुरू साहिबान जी और धन्य धन्य उनकी विशाल कमाई,

धन्य धन्य सारे ब्रह्मज्ञानी, सारे युगों के संत और भक्त,

धन्य धन्य गुरू संगत जी,

कोटि कोटि दंडवत प्रणाम और धन्यवाद स्वीकार कीजिए जी, गुर फतह स्वीकार कीजिए जी।

समर्पण

यह पुस्तक उनको समर्पित है जो माया में लिप्त हो चुके हैं। यह पुस्तक उनको समर्पित है जो माया के गुलाम बन चुके हैं। यह पुस्तक आने वाले सारे युगों की समस्त मनुष्य जाति को समर्पित है। यह पुस्तक गुरप्रसादि है एवं उनको समर्पित है जो गुरप्रसादि की तलाश में हैं। यह पुस्तक गुरप्रसादी नाम, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा — परोपकारिता एवं महा परोपकारिता को समर्पित है। सब से ऊपर यह पुस्तक अनादि सत्य – सतिनाम की सेवा और व्यवहार को समर्पित है।

 

 

जपुजी साहिब

सचखंड की यात्रा

  • मन की पूर्ण शांत अवस्था प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • अनादि — अनंत ब्रह्म शक्ति को प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • माया को जीतने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • मन पर विजय प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • जीवन-मुक्ति को प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • परम पद की प्राप्ति का गुरप्रसादी मार्ग।
  • पूर्ण ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • पूर्ण तत्व ज्ञान प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के दर्शन प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर में अभिन्न होने का गुरप्रसादी मार्ग।
  • गुरप्रसादी नाम, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा — परोपकार तथा महा परोपकार को प्राप्त करने का गुरप्रसादी मार्ग।

 

भूमिका

 

इस पुस्तक की रचना सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी की गुरप्रसादी गुरकृपा और पूर्ण हुक्म में हुई है। जपुजी बाणी को, सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के धरती पर प्रत्यक्ष प्रकट हुए अवतार धन्य धन्य निरंकार रूप सतिगुरू नानक पातशाह जी ने धरती पर अपनी असीम अपार गुरकृपा और गुरप्रसादि के साथ सब से पहले प्रकट किया है। जपुजी बाणी के आरंभ में धन्य धन्य सतिगुरू अवतार नानक पातशाह जी ने मूल मंत्र की असीम एवं परम शक्तिशाली महिमा को प्रकट किया है। मूल मंत्र की महिमा असीम, अनंत, अगोचर, अदृष्य, जगतेश्वर, ब्रह्मेश्वर, सर्वेश्वर, सर्व गुण निधान, सर्व दया निधान, सर्व कला भरपूर सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी की विलक्षण हस्ती और सभी अनंत ब्रह्म शक्तियों की परिभाषा को प्रकट करता है। इसलिए मूल मंत्र को महा मंत्र कहा गया है। बाकी की सारी जपुजी बाणी मूल मंत्र की असीम एवं परम शक्तिशाली महिमा का व्याख्यान करती है। इसलिए जपुजी को प्रमुख और परम शक्तिशाली बाणी कहा गया है एवं बाकी की सारी गुरबाणी को जपुजी बाणी की महिमा कहा है।

 

जपुजी साहिब की इस परम शक्तिशाली बाणी में धन्य धन्य सतिगुरू अवतार नानक पातशाह जी ने बाकी की गुरबाणी में स्थान-स्थान पर कई प्रकार से प्रकट किए गए सभी दरगाही विधानों और परम तत्वों का आधार अंकित किया है। इस पुस्तक में गुरप्रसादि और गुरू कृपा के साथ पूर्ण दरगाही हुक्म के अनुसार पूर्ण ब्रह्म ज्ञान और पूर्ण तत्व ज्ञान के आधार पर इन दरगाही विधानों एवं परम शक्तिशाली तत्वों का विवरण करते हुए मानसरोवर की एक झलक मात्र व्यक्त करने विनीत यत्न किया गया है। इस गुरप्रसादी कथा में बंदगी करते हुए जिज्ञासुओं के मन में उत्पन्न होने वाले संदेहों, भ्रमों और प्रश्नों से पूर्ण सत्य के आधार पर विमुक्त करने का विनीत यत्न किया गया है। जैसे कि हुक्म क्या है? नाम क्या है? गुरप्रसादि क्या है? गुरप्रसादि को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? पूर्ण बंदगी के गुरप्रसादि को प्राप्त करने का क्या रहस्य है? गुरप्रसादि की प्राप्ति के पश्चात् गुरप्रसादि गुरप्रसादि की सेवा-संभालता किस प्रकार की जाए? कर्म के विधान के बंधनों से किस प्रकार मुक्त हुआ जा सकता है? माया के तीन गुण कौन से हैं और मनुष्य माया की गुलामी में किस प्रकार से अटका हुआ है। माया को जीतने की क्या युक्ति है? हृदय के पूर्ण सत्यवादी अनुपालन की महिमा क्या है और इसको प्राप्त करने की क्या युक्ति है? जीवन मुक्ति की अवस्था कब प्राप्त होती है? नाम-सिमरन की महिमा और नाम हृदय में कब और किस प्रकार जाता है? रोम-रोम नाम-सिमरन की महिमा तथा युक्ति क्या है? मन की इच्छाएँ कैसे पूर्ण होती हैं? समाधि व शून्य समाधि क्या है और ये अवस्थाएँ किस प्रकार प्रकार प्राप्त होती हैं? हृदय में परम ज्योति के पूर्ण प्रकाश की महिमा एवं युक्ति क्या है? पूर्ण बंदगी में ऋद्धियों-सिद्धियों का क्या महत्त्व है? सति सरोवरों की महिमा क्या है? पूर्ण बंदगी के पाँच पड़ाव (धर्म खंड, ज्ञान ख़ंड, सरम (श्रम) खंड, कर्म खंड और सच खंड) की महिमा क्या है और जिज्ञासु किस युक्ति के साथ अपनी बंदगी को पूर्ण करके दरगाह में आदर प्राप्त कर सकता है?

जपुजी साहिब सचखंड की यात्रा का मार्ग दर्शन करती है। जिस अवस्था में पूर्ण संत, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, पूर्ण खालसे एवं अमृतधारी ही गुज़रते हैं. यह वो अवस्था है जब एक आत्मा असीम खज़ानों का स्रोत बन जाती है। सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के निर्गुण स्वरूप के साथ अभिन्न हो जाती है। जब वह आत्मा दूसरों के लिए गुरप्रसादि — असीम दरगाही कृपा का स्रोत बन जाती है। सो यह पूर्ण बंदगी की सहज समाधि वाली एक बहुत ऊँची ब्रह्म अवस्था है। जो केवल गुरप्रसादि के साथ ही प्राप्त एवं अनुभव की जा सकती है और ब्यान नहीं की जा सकती है। पूर्ण बंदगी उसको कहते हैं जब माया पर आत्मा पूरी तरह से विजय प्राप्त कर लेती है तथा सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के निर्गुण (आकार रहित) स्वरूप में अभिन्न हो जाती है।

असल आध्यात्मिकता की प्राप्ति जपुजी साहिब की बाणी या और कोई भी बाणी को क्रियात्मक तौर पर करने में है न कि दिन में बार-बार पढ़ने में है। अगर आप जी अपने जीवन में सचमुच आध्यात्मिकता की प्राप्ति और अनुभव करना चाहते हो तो इस पुस्तक में विचारे गए परम सत्य तत्वों को व्यवहारिक व क्रियात्मक तौर पर अपने रोज़ाना जीवन में ढालना पड़ेगा एवं जो जपुजी बाणी में लिखा है, उस पूर्ण ब्रह्म ज्ञान की कमाई करनी पड़ेगी। केवल वे जिज्ञासु ही पूर्ण संत, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, अमृतधारी एवं खालसे बनेंगे जो इस पूर्ण ब्रह्म ज्ञान को क्रियात्मक तौर पर अपने रोज़ाना जीवन में प्रयोग करेंगे। यह पुस्तक आप जी को गुर और गुरू के पावन चरण-कमलों पर पूर्ण समर्पण करने के लिए उत्साहित करेगी तथा नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा में पूर्ण तौर पर समर्पित होने के लिए प्रेरित करेगी।

हमारा अहंवादी तर्कशील मन पूर्ण ब्रह्म ज्ञान को शीघ्र नहीं मानने देता। जितनी देर तक हम सभी अहंभाव में होते हैं उतनी देर तक हम ब्रह्म ज्ञान में तर्कशील “क्यों” और “कैसे” को ढूंढते हैं। परंतु आत्मिक मार्ग पर “क्यों” और “कैसे” की तर्कशीलता के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ पर तो केवल अटूट श्रद्धा व विश्वास के लिए ही स्थान है। अभिप्राय यह कि जो कुछ भी गुरू कहता है वो सति सति सति है। इन सत्य वचनों को तो केवल वास्तविक में अमली तौर पर कमा कर ही अनुभव किया जा सकता है तथा इसी प्रकार कमाई करते हुए गुरप्रसादि के साथ पूर्ण ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।

हर शब्द पूर्ण हुक्म है तथा उसको पढ़ कर हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। पर इस ज्ञान का लाभ तब होता है अगर हम इस ज्ञान को अपने जीवन में अमली तौर पर प्रयोग करें। न कि अहंभाव में पढ़-पढ़ कर छकड़े को लादते जाएं। क्योंकि इस प्रकार करने से केवल अहंकार को ही चारा मिलेगा। तर्कशीलता अहम है, अहंकार है। तर्कशीलता में निर्णय करना कि यह सही है और वह गलत है, अहंकार है, अहम है, माया है। परंतु गुरप्रसादि माया, अहंकार और तर्कशीलता से परे है। गुरप्रसादि तो असीम ब्रह्म शक्ति है।

जब हम गुरू के सत्य वचनों पर अपनी अहंभाव समावृत ‘कारण’ तर्कशीलता का प्रयोग करते हैं तब हम आत्मिक मार्ग में बुरी तरह से असफल हो जाते हैं। परंतु जहाँ गुरू के लिए निष्काम, अटूट प्यार है, अटूट श्रद्धा है, वहाँ तर्कशीलता नहीं है। जो ऐसे अटूट प्यार, अटूट श्रद्धा तथा अटूट विश्वास की इन अनंत ब्रह्म शक्तियों से वंचित हैं; वे सदा माया के दलदल में फंसे रहेंगे।

ब्रह्मज्ञान कभी भी किताबें पढ़ कर नहीं आता है। न ही यह पुस्तक पढ़ कर आएगा। न ही ब्रह्मज्ञान कभी गुरबाणी पढ़ने से आता है। ब्रह्मज्ञान तो गुरप्रसादि है और माया पर पूरी तरह से जीत प्राप्त करने पर ही आता है। तत्व ज्ञान माया पर पूरी तरह से जीत प्राप्त करने पर ही आएगा और माया पर विजय गुरप्रसादि के साथ ही प्राप्त होती है। सो कभी भी ब्रह्मज्ञान में तर्कशीलता प्रयोग नहीं करनी चाहिए। केवल पूर्ण विश्वास, पूर्ण श्रद्धा व पूर्ण समर्पण की परम शक्तियों को ही प्रयोग करना चाहिए। सो इस पुस्तक को पढ़ते समय भी अपने पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, प्रीत एवं पूर्ण समर्पण की परम शक्तियों का प्रयोग करें तथा जो पढ़ते हैं उस को व्यवहारिक तौर पर प्रयोग करें। जो पढ़ते हैं उसकी कमाई करें व उस ब्रह्मज्ञान को आप अपने अंदर अनुभव करें। क्योंकि ब्रह्मज्ञान गुरप्रसादि के साथ अंतरात्मा में से तब उत्पन्न होता है जब हम माया पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर लेते हैं। गुरबाणी पर अमल करना आप सभी को सचखंड लेकर जाएगा; गुरबाणी केवल पढ़ने के साथ नहीं। सो अंत में केवल इतना ही कहेंगे कि जो गुरबाणी कहती है वह करें और गुरबाणी बनें।

गुरप्रसादी गुरकृपा के साथ पूर्ण हुक्म पर आधारित पूर्ण सत्य की महिमा इस पुस्तक में बड़े सरल शब्दों में सारे जनसमूह के साथ बाँटी गई है। पूर्ण सत्य में लिप्त यह गुरप्रसादी कथा जिज्ञासुओं को बंदगी के मार्ग पर सुगमता के साथ चलने में बहुत सहायक सिद्ध होगी तथा भक्ति के मार्ग पर गुज़र रहे जिज्ञासुओं का मार्ग दर्शन करेगी। जिस के साथ जिज्ञासु पूर्ण बंदगी की अवस्था को बड़ी शीघ्रता व बड़ी सरलता के साथ प्राप्त कर सकेंगे एवं आत्म रस अमृत को बड़ी ही शीघ्रता और सुगमता के साथ ग्रहण कर सकेंगे। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए आम तौर पर जिन-जिन शंकाओं और प्रश्नों का सामना जिज्ञासुओं को करना पड़ता है, इस पुस्तक में गुरप्रसादि और गुरू कृपा के साथ पूर्ण ब्रह्म ज्ञान व पूर्ण सत्य द्वारा उन सभी प्रश्नों के उत्तर अंकित किए हैं; जो कि परमार्थ के मार्ग पर चल रहे जिज्ञासुओं की शंकाओं का निवारण करेंगे और उनको भ्रम मुक्त कर के सचखंड का निवासी बनने में सहायक सिद्ध होंगें।

यह पुस्तक पंजाबी और अंग्रेज़ी में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। इस पुस्तक में गुरबाणी के शब्दों का प्रयोग करते समय सतिगुरू साहिबान द्वारा प्रयोग किए गए मात्राओं के नियमों की पालना श्री गुरू ग्रंथ साहिब के हिंदी स्वरूप के अनुसार ही करने का यत्न किया गया है।

सेवक

कोई नाउ जाणै मेरा

 

लेखक के बारे

दासन दास जी केवल एक साधारण गृहस्थी हैं। सांसारिक कर्तव्यों को निभाते हुए, वे गुरप्रसादी गुरकृपा के साथ आत्मिक तौर पर बख्शे गए हैं और पूर्ण सत्य की सेवा करने के लिए अपने श्वास समर्पित करने को यत्नशील हैं। वे आप जी के साथ अपने बारे में केवल इतना ही बताना चाहते हैं :-

“हम केवल दासों के दास है। कोटि ब्रह्मांड के चरणों के दासन दास। सारी सृष्टि के चरणों की धूल। विष्ठा के कीड़े के भी दास। इस धरती पर केवल एक कृमि जंतु हैं। जो कुछ भी हमारे जीवन में घटित हुआ है वह सब कुछ सतिगुर सत्य पारब्रह्म परमेश्वर की गुर कृपा और गुरप्रसादि के कारण घटित हुआ है व घटित हो रहा है। हम सारी रचना के केवल एक विनीत सेवक हैं और पूर्ण सत्य की सेवा में पूर्ण हुक्म के अनुसार सारे जन समूह को पूर्ण सत्य बाँटने के लिए यत्नशील हैं। सतिगुर सति (सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी हर एक मनुष्य को गुरप्रसादी नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा — परोपकार व महा परोपकार की परम शक्ति के साथ अलंकृत करे; जिस के फलस्वरूप इस धरती पर फिर सति युग की स्थापना संभव हो जाए।”

 

 

वैबसाईट के बारे में

यह पुस्तक सब से पहले www.satnaam.info वैबसाईट पर प्रकाशित हुई थी। आप जी के आत्मिक लाभ के लिए वैबसाईट पर अंग्रेज़ी तथा पंजाबी में बहुत सारी पुस्तकें व लेख उपलब्ध हैं। वैबसाईट, फोरम एवं ईमेल ग्रुप का गुरप्रसादी लक्ष्य संगत को नाम, गुरबाणी, अकाल पुरुष, पूर्ण बंदगी व सेवा — परोपकार एवं महा परोपकार के साथ जोड़ना है। गुरबाणी ने सचखंड की यात्रा करने का मानचित्र दर्शाया है और जब हम इस मानचित्र के अनुसार चलते हैं तो हम इस अनंतता के मार्ग पर चलते हैं। गुरबाणी की पालना करने के बिना सचखंड के मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। आप जी की आत्मिक सफलता की कुंजी गुरबाणी पर अमल करना है।

हमने जो कुछ भी भौतिक तौर पर अनुभव किया है और हमारे आत्मिक अनुभव में जो कुछ भी बीता है वह सब इसीलिए ही बीता है क्योंकि हमने वो किया है जो गुरबाणी कहती है। इस पुस्तक में तथा वैबसाईट में जो कुछ भी लिखा है; वह हमारे निजी गुरबाणी के अनुसार आत्मिक अनुभवों पर आधारित है और यह असीम पूर्ण सत्य है, इसके बिना और कुछ भी नहीं है।

हम विनम्रता सहित सारी संगत के श्री चरणों पर विनती करते हैं कि वैबसाईट पर प्रकाशित पुस्तकों को खुले मन व उदारता के साथ पढ़ें। तब ही आप जी असीम पूर्ण सत्य को अनुभव कर सकेंगे व उपभोग सकेंगे। हमारी धन्य धन्य, अगम्य अगोचर, अनंत, असीम श्री सत्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी को निरंतर प्रार्थना है कि वे उस हर एक मनुष्य को गुरप्रसादी नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा इनायत करे।

(अपनी आत्मिक यात्रा के किसी भी पक्ष संबंधी विमर्श करने के लिए या कोई प्रश्न पूछने के लिए, किसी मुश्किल के लिए, कृप्या dassandas@gmail.com पर ईमेल करें। अगर आप जी इस भक्ति के मार्ग पर एक-दूसरे की मदद करने के लिए पूरे विश्व में फैली हुई वैब संगत का हिस्सा बनना चाहते हैं तो भी उपरोक्त ईमेल आई. डी. पर ईमेल करें जी।)

 

 

मूल मंत्र

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु

अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

 

धन्य धन्य निरंकार स्वरूप सतिगुरू अवतार नानक देव पातशाह जी की असीम कृपा व गुरप्रसादि के कारण, गुरबाणी का यह सब से पहला और असीम व अनंत परम शक्तिशाली पूर्ण शब्द — अगम्य, अगोचर, असीम, अनंत धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी की सभी असीम, अनंत, परम शक्तियों को प्रकट करने का सामर्थ्य रखता है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस पूर्ण परम शब्द में अगम्य, अगोचर, सर्व कला भरपूर धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी की सभी परम शक्तियों को हमारे हृदय में प्रकट करने का पूर्ण सामर्थ्य है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस पूर्ण शब्द में अगम्य, अगाध, गुणी निधान धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के सारे परम शक्तिशाली गुणों की कथा को हमारे हृदय में प्रकट करने का पूर्ण सामर्थ्य है। पूर्ण तत्व, परम तत्व ज्ञान के इस पूर्ण शब्द में अगम्य, अगाध, अनंत, असीम, गुणी निधान धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के परम ज्योति पूर्ण प्रकाश के गुरप्रसादि को हमारे हृदय में प्रकट करने का पूर्ण सामर्थ्य है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस पूर्ण शब्द में अगम्य, अगाध, अगोचर, अनंत, असीम, गुणी निधान धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के गुरप्रसादि द्वारा हमारे हृदय को पूर्ण सत्यवादी अनुवृत्ति की इनायत करके, माया को जीत कर, त्रय गुणी माया से परे जा कर, धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर को हमारे हृदय में प्रकट करवाने का पूर्ण सामर्थ्य रखता है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस शब्द में अगम्य, अगाध, गुणी निधान धन्य धन्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के निरगुण स्वरूप में हमें अभिन्न कर लेने का पूर्ण सामर्थ्य है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस पूर्ण शब्द में हमें नाम, नाम सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी, परोपकार एवं महा परोपकार की असीम सेवा की इनायत प्राप्त करवाने का पूर्ण सामर्थ्य है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस पूर्ण शब्द में हमें पूर्ण ब्रह्म ज्ञान तथा पूर्ण तत्व ज्ञान की इनायत प्राप्त करवाने का पूर्ण सामर्थ्य है। यह पूर्ण सत्य है कि इस पूर्ण शब्द की महिमा व्याख्यान से परे है (यह उल्लेख केवल एक झलक मात्र ही है)। यह पूर्ण सत्य है कि इस पूर्ण शब्द की महिमा पूर्ण संत हैं, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी हैं, सतिगुरू हैं, पूर्ण खालसा हैं। यह पूर्ण सत्य है कि यह पूर्ण शब्द धन्य धन्य श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का भी गुरू है। यह पूर्ण सत्य है कि सारी गुरबाणी इस पूर्ण शब्द की महिमा है। यह पूर्ण सत्य है कि यह पूर्ण शब्द ही धन्य धन्य पूर्ण सत्य सति (अनादि सत्य) पारब्रह्म पिता परमेश्वर का आप पूर्ण ज्ञान स्वरूप है। यह पूर्ण सत्य है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति इस मंत्र में व्याख्यान किए गए मूल मंत्र से हुई है, होती है और होती रहेगी। इसलिए पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस परम शक्तिशाली शब्द को मूल-मंत्र और महा मंत्र की संज्ञा दी गई है। यह पूर्ण सत्य है कि आज तक सारे संसार में प्रकट हुए सारे धर्म ग्रंथों में लिखे गए मंत्रों में से सब से सर्वोच्च मंत्र यह मूल मंत्र है। यह मूल-मंत्र अपने आप में पूर्ण ब्रह्म की परिभाषा है, पूर्ण परम ब्रह्म शक्ति है, पूर्ण ब्रह्म आप है। जो मनुष्य इस पूर्ण सत्य को जान लेता है वह पूर्ण बंदगी द्वारा इस पूर्ण सत्य को अनुभव कर लेता है, वह बड़ा भाग्यशाली होता है। ऐसा मनुष्य :-

  • परम अवस्था को प्राप्त होता है।
  • पूर्ण ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
  • पूर्ण तत्व ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
  • पूर्ण संत बन जाता है।
  • पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी बन जाता है। ऐसा मनुष्य
  • पूर्ण खालसा बन जाता है।
  • अमृतधारी बन जाता है।
  • अमृत का दाता बन जाता है।
  • अपरस पारस बन जाता है।
  • जी दान एवं गुरप्रसादि के दान का अधिकारी बन जाता है।
  • अमृत का स्रोत बन जाता है।

इसलिए सारी मनुष्यता के चरणों में विनती है कि इस मूल मंत्र — महा मंत्र की असीम, अनंत महिमा को समझें और इसको प्राप्त करने का यत्न करें तथा अपना जन्म सफल करें जी।

 

ओंकार

सत्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर एक है। उसके जैसा और कोई नहीं है। उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं है न ही हो सकता है। उसका कोई समानांतर न ही कोई है न ही कोई हो सकता है। उस जैसा कोई और क्यों नहीं है: क्योंकि वह सर्व कला भरपूर है; वह सभी अनंत, असीम परम शक्तियों का मालिक व स्रोत है; उसका पूरा भेद आज तक न ही किसी ने पाया है और न ही कोई पा सकता है; वह आकार रहित है इसलिए वह सर्व-व्यापक है; वह सर्व-व्यापक है इसलिए वह अनंत है असीम है। वह अनंत है असीम है इसलिए उसकी रचना (सृष्टि) भी अनंत है असीम है; वह अनंत है असीम है इसलिए उसकी सभी परम शक्तियाँ भी अनंत असीम हैं क्योंकि वह सर्व कला भरपूर है। इसलिए वह रचना करने की शक्ति (ब्रह्मा की शक्ति), पालना करने की शक्ति (विष्णु की शक्ति) एवं संहार करने की शक्ति (शिव की शक्ति) का मालिक आप है। यह तीन महान परम शक्तियों का स्रोत वह आप है क्योंकि वह सारी रचना का सृष्टिकर्ता आप है। इसलिए वह माया का भी रचनहार आप है, इसलिए वह त्रय गुण माया से परे है; सो माया उसकी सेवक है। क्योंकि वह त्रय गुण माया से परे है इसलिए वह मनुष्य की इंद्रियों की पहुँच से परे है। इसलिए वह अगाध है, अगम्य है, अगोचर है।

और विस्थार के साथ विचार करें तो ओंकार का क्या भाव है ? शब्द ੴ दो शब्दों के मेल से बना है :- १ तथा ओंकार।

१ शब्द का भाव है: अद्वैत। जिसका भाव है और कोई भी उस जैसा नहीं है, कोई शक्ति उसकी प्रतिद्वंद्वी नहीं, और कोई शक्ति उसकी समानांतर नहीं है। वह एक खंड है; एक खंड सच खंड है (बहु-खंड सच खंड नहीं है, बहु खंड पाखंड है)। वह एक रस है; वह आत्म रस है। वह एक सार है। वह सब के लिए सर्वनिष्ठ है, वह सारी सृष्टि का सर्वनिष्ठ है।

शब्द ओंकार इन शब्दों के योग से बना है:

  • ‘ओ’ का भाव है ‘उकार’ जिसका भाव है उत्पत्ति करने वाला, भाव सारी सृष्टि की रचना करने वाला, सारी रचना का सिरजनहार, सारी रचना की जिस में से उत्पत्ति हुई है, होती है और होती रहेगी;
  • ‘अ’ का भाव है ‘आकार’ जिसका भाव है पालना करने वाला, जो सारी सृष्टि की पालना करता है, पालना कर रहा है और करता रहेगा;
  • ‘म’ का भाव है ‘मकार’ जिसका भाव है लयता करने वाला, संहार करने वाला, जो सारी सृष्टि का विनाशक है, विनाश करता है, विनाश कर रहा है और करता रहेगा। इस प्रकार शब्द ओंकार उसकी इस अद्वितीय एवं असीम अनंत हस्ती का व्याख्यान करता है।

वह शून्य मंडल में ही प्रकट होता है। शून्य मंडल की पूर्ण शांति ही आत्म रस है। भाव वह केवल उस हृदय में ही प्रकट होता है जो हृदय शून्य मंडल में निवास करता है।

 

सति नामु (सति नाम)

सति नामु (सति नाम) पारब्रह्म का आदि जुगादी (आदि काल से व युगों-युगों से), परा पूरबला (प्रथम व प्रधान) नाम है। यह नाम जो कि पूर्ण सत्य है, सभी खंडों-ब्रह्मांडों व सृष्टि का बीज-मंत्र भी है और आधार भी है। यह नाम मन को तार देता है, मन को वस कर देता है, मन को शांत कर देता है, मन को पाँच दूतों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) से तथा माया से निर्लिप्त कर देता है व हृदय को सत्यवादी कर देता है।

यह नाम आप ही पूर्ण प्रकाश है, सभी का जन्म-दाता है, पालनहार है, अगम्य-अगोचर है, अनंत है, अपार है, असीम है, जो मनुष्य को अपने में अभिन्न कर, अपने ही जैसा बना देता है, जो कि आप आत्म रस है, जिस की महिमा का कथन नहीं किया जा सकता।

शब्द ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ अनादि सत्य) की महिमा की एक झलक

शब्द ‘सति’ पूर्ण बंदगी, सारी आध्यात्मिकता, सभी ब्रह्म शक्तियाँ एवं परम ब्रह्म गुणों के खज़ाने का कुंजी शब्द है और पूर्ण ब्रह्म अवस्थाओं तथा सारी सृष्टि की रचना के ब्रह्म आधार का वर्णन करता है जो ब्रह्म ने आप निर्मित की है। असल में ब्रह्म अपने आप को अपनी अटल अवस्था में सुशोभित रख रहा है। अपने निर्गुण (आकार रहित) स्वरूप में ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ अनादि सत्य) आधार में चिरस्थायी कायम है और यह ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ अनादि सत्य) आधार पारब्रह्म पिता परमेश्वर आप केवल अनादि ‘सति’ है और यह आधार शब्द ‘सति’ द्वारा मूल-मंत्र में धन्य धन्य सतिगुरू नानक पातशाह द्वारा प्रकट और परिभाषित किया गया है।

यह ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ अनादि सत्य) ब्रह्म शब्द हमें बताता है कि आप ब्रह्म का क्या अर्थ है, उसके अपने निर्गुण स्वरूप का क्या भाव है, उसके रूप का क्या भाव है जो कि माया के तीनों गुणों से परे है :

  • रजो गुण   आशा, तृष्णा, मनसा।
  • तमो गुण —   काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार, निंदा, चुगली, कृपणता, अपवाद, राज्य,
  • यौवन, धन, माल, रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श;
  • सतो गुण दया, दान, धर्म, संजम, संतोष।

शब्द ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ अनादि सत्य) की और व्याख्या ‘शब्द’ है, जैसे कि ‘शब्द गुरू’ की सरंचना है, जो कि आप ब्रह्म में अनादि ‘सति’ के ‘तत्व’ को परिभाषित करता है, शब्द ‘सति’ का भाव है कि ੴ (१ ओंकार) अनादि सत्य है और यह उसका नाम है, जिसका भाव है कि अनादि सत्य (‘सति’) उसका नाम है, ੴ का नाम जो ब्रह्म का निर्गुण (आकार रहित) स्वरूप है ‘सति’ है, जो ब्रह्म का परम ज्योति पूर्ण प्रकाश स्वरूप है और यही है जो माया के तीनों गुणों से परे है, यह अगम्य है, अगोचर है और यह मनुष्य की पाँच इन्द्रियों द्वारा देखा, अनुभव या महसूस नहीं किया जा सकता तथा केवल इस ब्रह्म भाव को दिव्य-दृष्टि द्वारा ही अनुभव या महसूस किया जा सकता है। गुरबाणी ‘सति’ है इसलिए ‘गुरू’ है, गुरबाणी ‘सति’ है इसलिए निरंकार है।

ब्रह्म ‘सति’ है, अनंत, अपार, असीम, अपार व सर्व कला भरपूर है। यह ‘सति’ ही गुरू है। गुरबाणी इस ‘सति’ का ज्ञान स्वरूप है, इसलिए गुरू है। गुरबाणी इसी ‘सति’ का ज्ञान स्वरूप है इसलिए गुरबाणी ‘निरंकार’ (निराकार) है।

शब्द ‘सति’ अमृत की व्याख्या करता है, ‘सति’ वह परम शक्ति है, वह सर्व-शक्ति है, वह असीम शक्ति मानसरोवर है जो कभी नहीं मरता। वह सदैव रहता है, वह अपने आदि से है, वह अब भी है और वह सारे आने वाले युगों में भी रहेगा। झूठ सच (‘सति’) के सामने नहीं खड़ा हो सकता, अंत में यह केवल ‘सति’ है जो रह जाता है, झूठ मर जाता है और हर वस्तु जो माया के तीनों गुणों के प्रभाव के अधीन चल रही है, नाशवान है व असत्य है, जन्म-मरण के चक्र में भटक रही है।

केवल आदि अनादि ‘सति’ आप सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर है और उसका अपना अस्तित्व ‘सति’ से उत्पन्न हुआ है और वह शुरू से सार्वकालिक है, अब भी सार्वकालिक है और सदैव इस आदि अनादि सत्य (‘सति’) पर सार्वकालिक रहेगा। यह एक है जो कि अजूनी (अयोनि) है; कभी न मरने वाला, समय व निर्वात के चक्र से परे है, जन्म व मरण के चक्र से परे है।

यह असीम व विलक्षण आत्मिक परम शक्ति है जिस ने सारा ब्रह्मांड रचा है और जो सारे संसार को चला रहा है, जो ‘सति’ की नींव पर अपने आप ही रचा गया है और अपनी पालना आप ही कर रहा है, जो किसी भी वैर-भाव से परे है, जो अपनी हर एक रचना को इतना अधिक प्यार करता है कि उस ने अपना आप अपनी हर एक रचना में रखा है, जो कि सर्व-व्यापक है, हम सब में है। केवल एक ही कर्ता है, जो असीम आत्मिक शक्ति है। इसलिए सर्व कला भरपूर है : भाव यह है कि सब प्रकार की असीम शक्तियों का मालिक, आम मनुष्य के मन की कल्पना से भी परे कोई भी चीज़ करने में सक्षम, एक मनुष्य की पाँचों इन्द्रियों की पहुँच से परे इस असीम शक्ति का आधार शब्द ‘सति’ है, अनादि सत्य है और कुछ भी नहीं।

‘सति’ तत्व इसलिए ‘गुरू’ तत्व है क्योंकि एक गुरू है जो अंधकार को दूर करता है एवं हमें अंदर से ब्रह्मांड और ब्रह्म ज्ञान के बारे में प्रकाश करता है। गुरू वह है जिस के हम दैनिक कर्मों की पालना करते हैं और यहाँ कोई भी ‘सति’ से बड़ा और बेहतर नहीं है। इसलिए गुरू भी सतिनाम (ईश्वर जिसका नाम अनादि सत्य है, उच्चारण: सतनाम) ही है। गुरू का गुरू भी सतिनाम ही है। गुरबाणी का गुरू भी सतिनाम ही है। एक बार जब हम यह ब्रह्म शब्द का अभ्यास शुरू करते हैं तब धीरे-धीरे हम सच्चे बनना शुरू कर देते हैं। इसके फलस्वरूप हम पूरी तरह से सच्चे बन जाते हैं। हमारे कर्म हमारे गुरू हैं और अगर हमारे कर्म सति के हैं तो सति हमारा गुरू है। अगर हमारी करनी असति (उच्चारण असति, अर्थ : अनादि सत्य का आभाव, माया) की है तो असति हमारा गुरू है, भाव यह है कि हम निगुरे (गुरू के बिना) हैं क्योंकि असति तो गुरू हो नहीं सकता। अगर हम माया के अधीन कर्म करते हैं तो माया हमारी गुरू है, भाव यह है कि हम निगुरे (गुरू के बिना) हैं क्योंकि माया तो गुरू हो ही नहीं सकती।

इसके विपरीत अवस्था में हम ब्रह्म के ‘सति’ भाग में लीन हो जाते हैं और उसके साथ एक हो जाते हैं, इस सत्य अवस्था में हम केवल सत्य देखते हैं, सत्य बोलते हैं, सत्य करते हैं, सत्य की सेवा करते हैं और सत्य बाँटते हैं। इस प्रकार करने से हम सत्य की सेवा करते हैं और यह सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर की सर्वोत्तम सेवा है, यह ‘सति’ की सब से ऊँची सेवा है जो कि आत्म रस है, सब से ऊँचा अमृत जो कि निर्गुण (आकार रहित) स्वरूप परम ज्योति पूर्ण प्रकाश है।

‘सति’ का अभ्यास एक आत्मा को ‘सति’ में अभिन्न कर देता है और वह मनुष्य जो ‘सति’ के साथ एक हो जाता है, एक ब्रह्म स्वरूप बन जाता है और इस प्रकार करने से भावार्थ है कि वह आत्मा ब्रह्म ज्ञान का स्रोत बन जाती है, वह ‘सति’ का स्रोत बन जाती है,     दूसरों के लिए अमृत का एक स्रोत बन जाती है। इसलिए इसे ब्रह्म ज्ञानी कहा जाता है।

यहाँ तक कि शब्द ‘सतिगुरू’ में ‘गुरू’ भाग ‘सति’ ही है और वह मनुष्य जो ‘सति’ में अभिन्न हो जाता है और ‘सति’ के साथ एक हो जाता है, एक गुरू बन जाता है। आत्मा जो अनादि सत्य (‘सति’) को देखने के योग्य हो जाती है, अनादि सत्य (‘सति’) को बोलने, अनादि सत्य (‘सति’) को सुनने, अनादि सत्य (‘सति’) का वितरण करने एवं अनादि सत्य (‘सति’) की सेवा करने के योग्य हो जाती है और सब से ऊपर यह है कि वह ब्रह्म में लीन हो कर आप अनादि सत्य (‘सति’) बन जाती है और ऐसी आत्मा एक गुरू बन जाती है क्योंकि ऐसी एक आत्मा हमें अंदर से प्रकाशित कर सकती है एवं हमें अमृत दे सकती है, हमारे भ्रम और भ्रांतियाँ काट सकती है, हमारी बंदगी के मार्ग सच खंड की ओर हमारा नेतृत्व कर सकती है। इसके फलस्वरूप हमें जीवन-मुक्ति की ओर ले जा सकती है।

आइए एक संक्षेप विचार के अदान-प्रदान के लिए पूर्ण ब्रह्म ज्ञान — गुरबाणी पर विचार करें। शब्द भी गुरबाणी है। यह पूर्ण ब्रह्म ज्ञान है। गुरबाणी का हर एक शब्द और कुछ नहीं केवल ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर) की व्याख्या है और अपने इस गुण के कारण गुरबाणी आप ‘सति’ बन जाती है। गुरबाणी आप कहती है कि हमें गुरबाणी बनना चाहिए जिसका यही भावार्थ है कि हमें ‘सति’ बनना चाहिए, जिस का तात्पर्य है कि हमें ब्रह्म के साथ एक होना चाहिए।

गुरबाणी का अभ्यास ‘सति’ का अभ्यास है, इसका अभिप्राय है अनादि सत्य का अभ्यास, जो गुरमति (गुरू के उपदेश) का अभ्यास है और अनादि सत्य का निरंतर आधार पर अभ्यास करने से हम अपने आप ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर) बन जाएंगे तथा यही है जो गुरबाणी हमें बनने को कहती है, अनादि सत्य (‘सति’) का तत्व जो गुरबाणी को एक गुरू बनाता है, जो गुरबाणी को निरंकार (आकार रहित ईश्वर) का एक स्वरूप बनाता है।

शब्द हुक्म है। यह आदि और अनादि ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर) है। यह हुक्म है इसलिए यह ‘सति’ है, जो कि आप अकाल पुरुष का सब से ऊँचा हुक्म है। ‘सति’ बनना अकाल पुरुष का सर्वोच्च हुक्म है। यह अकाल पुरुष की सब से ऊँची महिमा है। यह अकाल पुरुष की सब से ऊँची सेवा है। इसलिए ‘सति’ की पालना दरगाह की कुंजी है। ‘सति’ की पूर्ण विश्वास, दृढ़ता, यकीन व श्रद्धा के साथ पालना करना, पूर्ण तौर पर अपने आप को ‘सति’ के आगे समर्पित करना तथा आदि अनादि ‘सति’ अमृत ब्रह्म के गुरप्रसादि गुर कृपा के साथ आप एक ‘सति’ बन कर ‘सति’ की पालना कर दरगाह में सदा-सदा के लिए निवास की प्राप्ति करना है। इसलिए तत्व गुरू ‘सति’ है। कहने का अभिप्राय है कि गुरू आप ब्रह्म है। यहाँ तक कि एक पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, एक पूर्ण संत, एक पूर्ण भक्त में यह ‘सति’ भाग है जो माया के तीन गुणों से परे है और गुरू भाग है, ब्रह्म भाग, पूर्ण ब्रह्म ज्ञान का भाग, पूर्ण तत्व ज्ञान का भाग है जो कि परम ज्योति पूर्ण प्रकाश है।

इसलिए शब्द ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर) है:-

  • परमात्मा
  • सारी सृष्टि का मालिक
  • सारी सृष्टि का पिता
  • व्याख्या से परेतात्पर्य यह है कि शब्द ‘सति’ व्याख्या से परे है। गुरप्रसादि के साथ इसकी एक झलक मात्र ही व्याख्या करने का यत्न किया गया है। वह मनुष्य जो पूरी तरह से उस में लीन हो गया है एवं उसके साथ एक बन गया है, उस मनुष्य के सारे कर्म ‘सति’ है। ऐसा मनुष्य जो ‘सति’ रूप बन गया है, वह ‘सति’ को देखने, सुनने, बोलने, ‘सति’ की सेवा करने तथा ‘सति’ और केवल ‘सति’ को क्रियात्मक तौर पर बाँटने के लिए ही ‘सति’ स्वरूप बनता है।यह सारे धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के ब्रह्म गुण हैं। वे हैं :
  • सति (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर)
  • परमात्मा
  • मालिक
  • गुरप्रसादि
  • सभी गुणों से भरपूर हुआ व सभी परम ब्रह्म शक्तियों वाला, इसलिए उस से सुंदर और कौन हो सकता है।
  • करोड़ों में से केवल एक के द्वारा ही पाया जाने वाला
  • अकथनीय, उसकी परम ब्रह्म शक्तियाँ वर्णन से बाहर हैं। उसकी रचना वर्णन से बाहर है।
  • परम सति (अनादि सत्य – ईश्वर) और विलक्षण

वह जो भी कहता है, ब्रह्म कानून है। जब उसकी बाणी (वाणी) तथा उसके ब्रह्म कानून की पालना प्यार व श्रद्धा, विश्वास एवं भरोसे के साथ उसके आगे पूरी तरह से समर्पित होकर की जाती है तब उसको पाया जा सकता है। पर यह सारा गुरप्रसादि है। इसलिए कृप्या उसकी कृपा के गुरप्रसादि के लिए सदा प्रार्थना करते रहें। हम उसका बोध नाम, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी एवं सेवा का गुरप्रसादि प्राप्त करके कर सकते हैं।

इसलिए शब्द ‘सति’ (उच्चारण सत्, अर्थ : अनादि सत्य – ईश्वर) की महिमा असीम व अनंत है और इसी कारण धन्य धन्य सतिगुरू पातशाह नानक जी ने ‘सति’ को इस महा मंत्र ‘मूल-मंत्र’ में नाम कह कर सम्मानित किया है। भाई गुरदास जी ने भी अपनी पहली वार में ‘सतिनामु’ (उच्चारण: सत् नाम, अर्थ: ईश्वर जिसका नाम अनादि सत्य है) की महिमा का विवरण किया है:-

 

 

 

‘सतिनामु’ (उच्चारण: सत् नाम, अर्थ: ईश्वर जिसका नाम अनादि सत्य है) का मंत्र भाई गुरदास जी द्वारा

भाई गुरदास जी को श्री गुरू अमरदास जी, श्री गुरू रामदास जी, श्री गुरू अर्जन देव जी तथा श्री गुरू हरिगोबिंद साहिब जी की असीम व अनंत गुरू कृपा और गुरप्रसादि प्राप्त थी। वे ब्रह्म ज्ञानी एवं महान विद्वान थे। उन को धन्य धन्य श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की पहली जिल्द (आदि ग्रंथ) लिखने का सम्मान प्राप्त हुआ।

भाई गुरदास जी की बाणी 40 वारों के रूप में लिखी गई है और गुरू पंचम पातशाह जी के द्वारा बहुत ही आदृत की गई है। उन्होंने इस को ‘गुरबाणी की कुंजी’ कहा है। इस का वास्तविक तात्पर्य है कि भाई गुरदास जी ने असीम अनुकम्पा के साथ महत्त्वपूर्ण ब्रह्म कानूनों, पूर्ण बंदगी के कानूनों का अपनी बाणी में सरल शब्दों में व्याख्यान किया है। एक बार जब आप इस बाणी को समझ लेते हो तो गुरबाणी को समझना बहुत ही आसान बन जाता है।

भाई गुरदास जी ने असीम अनुकम्पा के साथ ये वारें इस ब्रह्म सत्य को व्याख्यान करने के लिए लिखी हैं कि उन्होंने गुरबाणी के संबंध में स्थूल रूप में क्या अनुभव किए। उन्होंने अपनी गुरबाणी के बारे में ब्रह्म सूझ को बहुत ही सरल भाषा में व्याख्यान किया है। भाई गुरदास जी की बाणी को श्री गुरू ग्रंथ साहिब एवं दशम पातशाह जी (श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी) की बाणी के बाद गुरमति (सतिगुरू जी के उपदेश) के अगले स्तर के तौर पर जाना जाता है क्योंकि भाई गुरदास जी गुरू अर्जन देव जी की सीधी छत्र-छाया में थे, यहाँ कोई कारण नहीं है कि उनकी बाणी को गुरमति न माना जाए।

भाई गुरदास जी ने असीम अनुकम्पा के साथ अपनी वारों के आरंभ में ही ‘सतिनाम’ एवं ‘सति’ शब्द की ब्रह्म महत्त्वता का व्याख्यान किया है। यहाँ उनकी पहली वार की पहली पउड़ी दी गई है :-

नमसकार गुरदेव को सतनामु जिस मंत्र सुणाया॥

भवजल विचों कढके मुकति पदारथ मांहि समाया॥

जनम मरन भउ कटिआ संसा रोग विजोग मिटाया॥

संसा इह संसार है जनम मरन विच दुख सबाया॥

जमदंड सिरों न उतरै साकत दुरजन जनम गवाया॥

चरन गहे गुरदेव के सति सबद दे मुकति कराया॥

भाइ भगत गुरपुरब कर नाम दान इशनान द्रिड़ाया॥

जेहा बीउ तेहा फल पाया ॥१॥

(भाई गुरदास जी, वार १)

 

भाई गुरदास जी ने बड़ा ही स्पष्ट वर्णन किया है कि धन्य धन्य गुरू नानक पातशाह जी असीम करूणा के साथ हमारे लिए दरगाह में से ‘सतिनाम’ मंत्र लाए हैं। जब गुरू नानक पातशाह जी बेईं नदी, सुलतानपुर लोधी में तीन दिनों के लिए पानी के अंदर गए थे। वापिस लौटते समय उन्होंने मूल मंत्र उच्चारण किया, “ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥” तब जप कहा, जिसका भाव है कि मूल मंत्र का जाप करें क्योंकि उन्होंने उच्चारण किया कि यह मूल मंत्र, “आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥” मूल-मंत्र का केंद्रीय बिंदु शब्द ‘सति’ है तथा इसलिए उन्होंने शब्द ‘सति’ को ‘नाम’ कहा।

शब्द सति अमृत आत्म रस अमृत के सब से ऊँचे स्तर निर्गुण स्वरूप (आकार रहित स्वरूप) धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी के परम ज्योति पूर्ण प्रकाश को दर्शाता है। शब्द ‘सति’ का भाव है सत्य / सच और सत्य धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी का नाम है। बहुत सारे लोग व प्रचारक सतिनाम को सच्चा नाम अनुवाद करते हैं, जो कि सही नहीं है। जब वे सतिनाम वाहिगुरू कहते हैं, वे इसका अनुवाद करते हैं कि सच्चा नाम वाहिगुरू है। यह सही नहीं है। सतिनाम का भाव है ‘सति’ (अनादि सत्य‌) नाम है, सच नाम है। सतिगुरू को भी सच्चा गुरू अनुवाद किया जाता है। प्रचारक तब यह निष्कर्ष निकालते हैं कि केवल सिख गुरू सच्चे गुरू हैं और दूसरे सारे गुरू झूठे हैं। वे जनता में असहनशीलता व हिंसा फैलाते हैं। सतिगुरू का असल भाव है :- ‘सति’ गुरू है। बाणी सत्य है, इसलिए यह गुरू है। बाणी सति है इसलिए यह निरंकार (आकार रहित ईश्वर) है‌‌ एवं जिस हृदय में ‘सति’ वास करता है वह गुरू है।

शब्द सति ही केवल एक है जो अकाल पुरुष के सब से महत्त्वपूर्ण और अत्यावश्यक गुणों को परिभाषित करता है। ‘सति’ का भाव है जो कभी नहीं बदलता, स्थिर रहता है और बिना किसी बदलाव के रहता है, सार्वकालिक है। हर दूसरी वस्तु समय के साथ बदल रही है क्योंकि हर वस्तु माया है और माया की असंख्य अवस्थाएँ हैं एवं हर सैकिंड (क्षण) बदलती रहती हैं। सति कभी नहीं बदलता और आदि काल से सति है, अब भी सति है और सदा ही सति रहेगा।

भवसागर माया के अँधेरे के प्रभाव का विशाल समुद्र है। एक आत्मा जो माया के प्रभाव पाँच दूतों (काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार) एवं इच्छाओं के अधीन रह रही है, वह मिथ्या अधर्म की गंदगी के गहरे समुद्र में पड़े पत्थर की तरह है। भवसागर माया का समुद्र है और सारा संसार ही इस में आ जाता है। पर शब्द ‘सति’ माया से परे है। भाई गुरदास जी लिखते हैं कि ‘सति’ ‘मुक्त पदार्थ’ है। इसका तात्पर्य है कि ‘सतिनाम’ के मंत्र के गुरप्रसादि में हमें इस भवसागर से बाहर ले जाने की तथा वापिस मुक्ति के पदार्थ, धन्य धन्य पारब्रह्म परमेश्वर के निर्गुण स्वरूप में ले जाने की परम ब्रह्म शक्ति है। जब यह घटित होता है तब हम जन्म-मरण के सब से बड़े दुख से राहत पा लेते हैं।

इस संसार में रहते हुए हम लगातार जन्म-मरण के डर का सामना करते हैं। जिस को सब से बड़े स्तर का रोग कहा गया है। जन्म लेना और उस तरह के ही कष्टों, पीड़ाओं एवं दुखों में से गुज़रना, अच्छे व बुरे क्षणों में से गुज़रना, पर कोई अनादि प्रसन्नता न होनी, कोई अनादि आशीष नहीं होनी, माया के गहरे मिथ्या अधर्म की गंदगी में रहना सब से बड़ा रोग है। अगर हम सतिनाम का गुरप्रसादि प्राप्त नहीं करते एवं अपने आप को मूल-मंत्र में बताए गए गुणों को प्राप्त करने की ओर समर्पित नहीं करते और सति (अनादि सत्य – ईश्वर) स्वरूप नहीं बनते हैं तब हमें दरगाही मूल्यों में ‘साकत’ तथा ‘दुर्जन’ कहा जाएगा और हम अपना यह अनमोल मनुष्य जन्म का जीवन गवा लेंगे, जो हमें सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर की कृपा द्वारा सति स्वरूप बनने और उसमें अभिन्न होने के लिए प्रदान किया गया है।

इसलिए हमें धन्य धन्य गुरू नानक पातशाह जी का बहुत ही आभारी होना चाहिए जिन्होंने बहुत ही दयालुता के साथ हमें शब्द ‘सति’ का गुरप्रसादि प्रदान किया है, जो समर्पण, दृढ़ता, विश्वास, भरोसे, यकीन, श्रद्धा तथा प्रेम के साथ कमाया जाता है जो कि हमें वापिस अपने मूल धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी की ओर ले जाता है।

करता पुरखु (कर्ता पुरुष — पारब्रह्म परमेश्वर)

‘करता’ (कर्ता) यानि रचयिता जो सारी सृष्टि का निर्माता है। ‘पुरख’ (पुरुष) जो सारी रचना में समाया हुआ है। अभिप्राय यह है कि ‘करता’ (कर्ता) अपनी ही निर्मित की हुई हर रचना में समाया हुआ है। यानि कि सारी सृष्टि की रचना ”ੴ सति नामु” की परम शक्ति ‘सति’ में से होती है और इस रचना करने की परम शक्ति को ‘करता’ (कर्ता) कहा गया है। इसलिए ‘करता’ (कर्ता) वह परम शक्ति है जो सारी रचना का सृजन करती है, कर रही है और करती रहेगी। ‘पुरख’ (पुरुष) उस परम शक्ति का वह अंश है जो हर रचना में समाया हुआ है और हर रचना में जो कुछ भी परिवर्तन होता है वह इस ‘पुरख’ (पुरुष) परम शक्ति के अस्तित्व के कारण ही हो रहा है। तात्पर्य यह है कि ‘पुरख’ (पुरुष) वह परम शक्ति है जो सारी रचनाओं की पालना एवं संभालता कर रही है। इसलिए ‘करता’ (कर्ता) वह हुक्म है जो सारी रचना का निर्माण करता है और ‘पुरख’ (पुरुष) वह हुक्म है जो सारी रचना की सेवा-संभालता और पालना करता है। इसलिए गुरबाणी में ‘पुरख’ (पुरुष) को नर की संज्ञा दी गई है, इसका भाव यह है कि केवल सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर ही नर है बाकी सब नारियाँ हैं। जिन नारियों को गुरप्रसादि की प्राप्ति होती है वे सुहागनें बन जाती हैं तथा अपनी बंदगी पूर्ण कर सदा सुहागनें बन जाती हैं। सुहागनों तथा सदा सुहागनों के इलावा बाकि सभी नारियाँ दुहागिन हैं। नारी के संदर्भ में शब्द ‘पुरुष’ का एक और भाव यह भी है: ‘पु’ का भावार्थ है नर्क तथा ‘रुष’ का भावार्थ है रक्षा करने वाला, सो ‘पुरुष’ से अभिप्राय है नर्कों से रक्षा करने वाला। इसलिए ‘करता पुरख’ (भावार्थ कर्ता पुरुष) से भाव वह परम शक्ति है जो सब कुछ करती है और जिस के हुक्म में सब घटनाएँ घटित होती हैं। जो सारी सृष्टि की रचना करती है और सारी सृष्टि को चलाती है। यह परम शक्ति सब खंडों-ब्रह्मांडों तथा ‘चौरासी लाख मेदिनी’ (84 लाख जीवों की योनियाँ) का सृजनहार, पालनहार एवं संहारक है।

‘करता पुरख’ (भावार्थ कर्ता पुरुष) की इस परम शक्ति के बारे में इस पूर्ण ब्रह्म ज्ञान का अभ्यास करने से ‘अहंभाव’ का नाश होता है और माया से मुक्ति की प्राप्ति होती है। आइए इस परम शक्ति के इस परम तत्व को और विस्थारपूर्वक समझने का यत्न करें। सुखमनी बाणी के पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस श्लोक पर विचार करने से हमें इस परम शक्ति के परम तत्व को दैनिक जीवन के अभ्यास में लाने की असीम शक्ति के गुरप्रसादि मानसरोवर की गहराई की एक झलक का अनुभव करने के लिए उत्साहित करेगी। जिन मनुष्यों में अहम् बहुत प्रबल है वे ‘सतिनाम करता पुरख’ का सिमरन करने से अपने अहम् को मारने में कामयाब हो जाएगें।

करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ॥

नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ॥१॥

(पन्ना २७६)

गुरू पंचम पातशाह जी धन्य धन्य श्री गुरू अर्जन देव जी असीम दयालुता के साथ इस सारे ब्रहमांड के काम-काज के बारे में ब्रह्म ज्ञान का यह अनादि भावार्थ प्रदान कर रहे हैं। उस ब्रह्म ज्ञान की दिव्य शक्तियों के बारे में ज्ञान दे रहे हैं जो परम शक्तियाँ सृष्टि और इस के काम-काज के पीछे काम कर रही हैं। दिव्य शक्तियाँ जो हर रचना को चलायमान रख रही हैं उन परम शक्तियों का इस असटपदी में अनुभव और वर्णन किया गया है।

प्रकृति के काम-काज के तरीके के बारे में समझना हमारे लिए अति आवश्यक है। एक बार जब हम पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस भाग को समझने का तथा इस को व्यवहारिक तौर पर अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करने लग पड़ें तो हम अपने अहम् का अंत करने के योग्य हो जाएंगे। अहम् (हउमै) जिस को गुरबाणी में दीर्घ रोग कहा गया है; इस दीर्घ मानसिक रोग का इलाज हमें जीवन मुक्ति की ओर ले जाता है। अहम् (हउमै) गंभीर मानसिक रोग है क्योंकि यह हमें इस बात का विश्वास करवाता है कि हम सब काम-काज करने वाले हैं, हम कर्ता हैं। इस प्रकार अहम् (हउमै) की सोच हमें अनादि सत्य की रेखा से परे रखती है।

हमें इस बात का अहसास होना आवश्यक है कि यह हमारा स्थूल शरीर नहीं है जो कोई काम-काज या कार्य कर रहा है बल्कि यह दिव्य शक्ति है जो हमारे इस शरीर को चला रही है तथा हमारे इर्द-गिर्द हर वस्तु का घटित होना बनाती है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस भाग को समझने के लिए (उस विषय व वस्तु के प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने के लिए जो प्रश्न समय-समय पर हमारे मन में उठते हैं) आइए हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें। आइए कोटि-कोटि दंडवत वंदना धन्य धन्य पारब्रह्म परमेश्वर तथा धन्य धन्य गुरू के चरणों में करके प्रार्थना करें। आइए कोटि-कोटि धन्यवाद धन्य धन्य गुरू तथा धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर के श्री चरणों में करके प्रार्थना करें। आइए गरीबी वेश हृदय के साथ, पूर्ण विनम्रता, विश्वास, भरोसे, यकीन, श्रद्धा एवं प्रेम के साथ प्रार्थना करें। आइए इस पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के अमूल्य भाग को समझने के लिए सहायता के लिए प्रार्थना करें। आइए हम इस पूर्ण ब्रह्म ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में लाने की सहायता के लिए प्रार्थना करें ताकि हम मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकें।

कृप्या सदैव यह याद रखें कि गुरबाणी के अनुसार हर कार्य करना सफलता की कुंजी है तथा केवल गुरबाणी पढ़ना ही नहीं। जब हम ऊपर अंकित किए तरीके के साथ प्रार्थना करते हैं; हमें यकीन है कि धन्य धन्य गुरू साहिब जी द्वारा सारी गुरबाणी में दिए पूर्ण ब्रह्म ज्ञान की कमाई के गुरप्रसादि का अनुग्रह प्राप्त करेंगे। यहाँ तक कि अगर हम एक गुर शब्द को ले कर उसे अपने दैनिक जीवन में अभ्यास में ले आएं तो यह हमारे लिए सच खंड का दरवाज़ा खोल देगा और हमें जीवन मुक्ति की ओर ले जाएगा। शब्द गुरू गुरबाणी में पेश किए गए ब्रह्म शब्द केवल शब्द या एक पवित्र लेख ही नहीं हैं बल्कि ये धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर का हम सभी के साथ ब्रह्म वादा है, यह दरगाही हुक्म है। इसलिए अगर हम वह करते हैं जो हमें इन ब्रह्म शब्दों में गुरू जी द्वारा बताया गया है तब हम इस के फल पाने तथा बाँटने के भागी बन जाएंगे और वह बन जाएंगे जो गुरबाणी हमें बनने के लिए कहती है।

गुरू शब्द की कमाई दरगाह (बैकुंठ) की कुंजी है, केवल कुंजी ही नहीं बल्कि सदा के लिए दरगाह में स्थापित हो जाने का आज्ञा-पत्र है। गुर शब्द की कमाई से तात्पर्य है: वह करना जो गुरबाणी हमें करने के लिए बता रही है। अपने अंदर सभी ब्रह्म गुणों को लाना तथा अपने अंदर से सभी अवगुणों का अंत करना है। गुर शब्द की कमाई से तात्पर्य है: पूर्ण सत्यवादी अनुपालन की कमाई करना, मन पर विजय प्राप्त करना, माया पर विजय प्राप्त करना, पाँच दूतों पर विजय प्राप्त करना, सारी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना तथा परमात्मा के साथ एक होना, परमात्मा में अभेद होना है।

हमारे हृदय में अवगुणों का अंत करना तथा सारे ब्रह्म गुणों में बढ़ोत्तरी करना सफलता की कुंजी है। इन ब्रह्म गुणों को अपने हृदय में धारण करना ही है जिसको वास्तव में हम बंदगी कहते हैं। हमारे हृदय को सारे ब्रह्म गुणों से भरपूर करना, हमारे हृदय को संत हृदय बना देता है। हृदय संत है तथा हमारा बाहरी भेष, बाहरी चिन्ह एवं अनुष्ठान संत नहीं हैं। यह अंदरूनी परिवर्तन की बात है; बाहरी परिवर्तन की नहीं। अंदरूनी परिवर्तन सारे ब्रह्म गुणों को अपने हृदय में उत्कीर्न करना, जो केवल सब घटित होता है अगर आप उन गुणों का अपने रोज़मर्रा के जीवन में अभ्यास करें। असल में गुर शब्द हुक्म है, जो सदा कायम रहता है। वह मनुष्य जो हुक्म की पालना करता है तथा हुक्म के साथ लड़ता नहीं है, वह धन्य धन्य हो जाता है। जो मनुष्य हुक्म की पालना नहीं करता तथा हुक्म के साथ लड़ता है, हार जाता है। वह मनुष्य जो हुक्म की पालना करता है तथा सारी परिस्थितियों में शाँत रहता है, वह आध्यात्मिकता के सारे लाभ प्राप्त करने वाला है, भाग्यशाली मनुष्य है। वह जो हुक्म के साथ लड़ता है, बार-बार शिकायत करता है, एक हारा हुआ है और तब तक हारा रहता है जब तक वह हुक्म को मानना शुरू नहीं कर देता है। हुक्म को मानना गुरप्रसादि है। यह केवल गुरप्रसादि के साथ ही घटित होता है। इस तथ्य को पहचानना कि हुक्म को मानना केवल गुरप्रसादि के साथ आता है, पूर्ण ब्रह्म ज्ञान की नींव रखता है कि केवल एक करने वाला है, ‘करता पुरखु’(कर्ता पुरुष: ईश्वर) है और हर वस्तु परमात्मा के हुक्म अनुसार घटित होती है।

आध्यात्मिक सफलता की कुंजी हुक्म को पहचानना है तथा हुक्म को मानना है। इस प्रकार करने से हम अपने अहंभाव को समाप्त कर लेते हैं तथा परम अवस्था तक पहुँच जाते हैं और एक पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी बन जाते हैं। यह हुक्म को पहचानने की शक्ति गुरप्रसादी परम शक्ति है, इसलिए जब तक हुक्म को पहचानने की गुरप्रसादी परम शक्ति की कृपा हमारे ऊपर धन्य धन्य गुर और गुरू द्वारा नहीं होती तब तक हमें निरंतर धन्य धन्य गुर और गुरू के आगे प्रार्थना करते रहना चाहिए। हुक्म को पहचानने व मानने की गुरप्रसादी परम शक्ति हमें अहंभाव की मृत्यु होने पर प्राप्त होती है।

प्रार्थना करने का सब से बढ़िया और सर्वोच्च ढंग नाम-सिमरन करना है, ‘सतनाम सिमरन’। हुक्म को पहचानने और मानने की परम शक्ति की प्राप्ति के लिए हमें धन्य धन्य गुर और गुरू के आगे नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी व सेवा के गुरप्रसादि के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए। वे मनुष्य जो इस गुरप्रसादि की कृपा के पात्र बने हुए हैं या बन जाते हैं, वे धन्य-धन्य बन जाते हैं और परम अवस्था को पहुँचते हैं।

दरगाही (बैकुंठी) सफलता की कुंजी को गुर व गुरू को तन, मन और धन के साथ पूर्ण तौर पर समर्पित कर देने के तौर पर वर्णन किया जा सकता है। सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर को सब कुछ अर्पित कर दें और आप नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी तथा सेवा, परोपकार व महा परोपकारी हृदय है: एक प्यार, श्रद्धा, विनम्रता एवं दया के साथ भरपूर हृदय। ऐसा हृदय जो कि सारी सृष्टि के साथ प्यार से भरपूर हृदय है क्योंकि वह एक दृष्ट होता है और उस में कोई वैर नहीं होता है। इस तरीके के साथ हर गुर शब्द हमें मानसरोवर में गहरा ले जाता है। मानसरोवर में ब्रह्मता है, ब्रह्मता एवं केवल ब्रह्मता और कुछ नहीं। मानसरोवर निर्गुण स्वरूप परम ज्योति पूर्ण प्रकाश है, यह हृदय को ब्रह्म गुणों के साथ भरपूर कर देता है, इसको एक संत हृदय कहा जाता है।

सरल शब्दों में आध्यात्मिक सफलता की कुंजी हमारे दैनिक जीवन में सभी ज्ञान इन्द्रियों व कर्म इन्द्रियों के साथ यह मानना है कि यहाँ केवल एक ‘करता पुरखु’(कर्ता पुरुष) है। जब हम गुरबाणी में ‘एक’ का हवाला देते हैं तब इस का अभिप्राय है परमात्मा, धन्य-धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर क्योंकि परमात्मा ही केवल एक कर्ता है, इस लिए वह सारी सृष्टि को चलाने वाला है। सारी सृष्टि सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर की अनंत दिव्य शक्तियों के द्वारा चलाई जा रही है और अगर हम इस गुर शब्द में विश्वास करें तथा इस को मानें तब यहाँ अहंभाव के लिए कोई स्थान नहीं रहता। अहंभाव का अंत हो जाता है और जब इस प्रकार होता है, तब हम मुक्ति की अवस्था में पहुँच जाते हैं। हमारा परमात्मा से बिछड़ने का कारण केवल हमारा अहंभाव ही है। अहंभाव से मुक्ति जीवन-मुक्ति है।

गुरू पंचम पातशाह जी असीम कृपा के साथ जो वस्तु हमारे पास है, उसे एक कर्ता – धन्य-धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर के चरणों पर अर्पित करने का हमें ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। एक बार जब हम ऐसा कर लेते हैं और इस ब्रह्म गुर शब्द की कमाई करते हैं तब हम अपने अहंभाव को नष्ट कर लेते हैं और एक बार जब इस प्रकार घटित होता है तब हम धन्य-धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर के पूर्ण हुक्म के अधीन आ जाते हैं। इस प्रकार करने से हमें अपने मनुष्य जीवन का उद्देश्य जो कि जीवन मुक्ति है, प्राप्त कर लेते हैं।

अध्यात्म के शिखरों पर पहुँचने के उद्देश्य के लिए अहंभाव को समाप्त करना एक आवश्यक ब्रह्म कानून है। जितना समय हम अहंभाव में हैं, तब तक हम सर्व-शक्तिमान को पूर्ण तौर पर पाने के योग्य नहीं हो सकते। पर ज्यों ही हम अहंभाव को तोड़ देते हैं, नष्ट कर देते हैं और तत्व ज्ञान कमाते हैं, सर्व-उच्च ब्रह्म ज्ञान कमाते हैं कि पुनर्जन्म हमारे अहंभाव के कारण है, तब हम सभी प्रकार के प्रतिबन्धों/रोक को तोड़ देते हैं और वापिस धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर के निर्गुण स्वरूप में अभिन्न हो जाते हैं। इस ब्रह्म ज्ञान की कमाई करनी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो हमें बताती है कि हर सृष्टि की रचना के पीछे जीवन शक्ति, ब्रह्म शक्ति है और स्वयं अकाल पुरुष द्वारा चलाई जा रही है, किसी और के द्वारा नहीं। धन्य धन्य पंचम पातशाह जी ने बड़ी अनुकम्पा के साथ इस ब्रह्म कानून का विस्थार इस अष्टपदी के बाकी भाग में किया है कि यहाँ केवल एक ही कर्ता है। आइए हम फिर सर्व-शक्तिमान पारब्रह्म पिता परमेश्वर के आगे इस ब्रह्म ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में सोखने की प्रार्थना करें और गुरबाणी अनुसार कर्म कर इस के अभ्यास से लाभ उठाएँ।

 

 

निरभउ (निर्भय)

‘निरभउ’ (निर्भय) सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की अगली परम शक्ति है। इस परम शक्ति को गुणी निधान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर का परम गुण भी कहा जाता है। ‘निरभउ’ (निर्भय) से अभिप्राय है ‘भय-रहित’। प्रश्न उठता है कि किस वस्तु का भय? क्योंकि सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर ‘करता पुरख’ (कर्ता पुरुष) अपनी रचित सारी रचना में आप समाया हुआ है, इस लिए उस को किस का भय हो सकता है क्योंकि सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर से ऊपर कोई शक्ति नहीं है और वह आप सारी शक्तियों का स्वामी वह स्वयं है, इसलिए वह ‘निरभउ’ (निर्भय) है। क्योंकि सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर त्रय गुण माया से परे है और उस ने सारी सृष्टि की रचना आप की है, कर रहा है और करता रहेगा, क्योंकि वह सारी रचना की सेवा-संभालता/पालन-पोषन आप कर रहा है और करता रहेगा। इसलिए वह किसी भी वस्तु के खोने का भय नहीं रखता है। ‘निरभउ’ (निर्भय) का तात्पर्य है कि सारे बंधनों से मुक्त। हमारे मनुष्य जीवन के लिए अपनी भक्ति को पूर्ण अवस्था में देखने के लिए ‘भय’ का यह तथ्य समझना अति आवश्यक है क्योंकि केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) ही हृदय की पूर्ण सत्यवादी अनुपालन में जा सकता है। केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) ही पूर्ण ‘सति’ में समा सकता है। केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) ही माया को जीत कर त्रय गुण से परे जा कर सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर में लीन हो सकता है। ‘निरभउ’ (निर्भय) ही पूर्ण सति की सेवा कर सकता है। केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) ही पूर्ण सति का संवितरण कर सकता है। इसलिए मनुष्य जीवन को अकाल पुरुष में अभिन्न करने के लिए ‘निरभउ’ (निर्भय) अवस्था की प्राप्ति करना, पूर्ण भक्ति के लिए दरगाही हुक्म है। इसका कारण यह है कि रचना रचने की शक्ति एक आम मनुष्य की पहुँच से परे है इसलिए मनुष्य जीवन में भय का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सारी रचना करता पुरखु (कर्ता पुरुष — पारब्रह्म परमेश्वर) के हुक्म अनुसार रचित है व चलाई जाती है। सो मनुष्य के हाथ वश में कुछ नहीं है। इसलिए एक आम मनुष्य सदैव ‘भय’ में ग्रस्त रहता है। सो एक आम मनुष्य को ‘निरभउ’ (निर्भय) अवस्था की प्राप्ति के लिए इस ‘भय’ तथ्य को समझना अति आवश्यक है। प्रश्न उठता है कि ‘भय’ किस वस्तु का? ‘भय’ गुम होने का, ‘भय’ खोने का, ‘भय’ गंवाने का, ‘भय’ अपनी मृत्यु का, ‘भय’ अपने सांसारिक रिश्तेदारों के चले जाने का, ‘भय’ हमारी इच्छाओं का ना पूरी होने का, ‘भय’ हमारे कार्यों के पूर्ण न होने का, ‘भय’ शारीरिक रोगों के ठीक न होने का, ‘भय’ मानसिक रोगों के ठीक न होने का, ‘भय’ काम-काज में घाटों का, ज़रा अपने रोज़मर्रा के जीवन पर झाँकें, हमारा हर पल ‘भय’ में व्यतीत हो रहा है। इसलिए इस ‘भय’ का तात्पर्य है ‘मोह’। हमारा हर पल ‘मोह’ के इस दूत के प्रभाव अधीन व्यतीत हो रहा है। इसलिए ‘निरभउ’ (निर्भय) होने से अभिप्राय है मोह के इस दूत से मुक्त होना। अकाल पुरुष त्रय गुणी माया से परे है, वह माया का रचयिता है, इसलिए ‘मोह’ के इस दूत से मुक्त है और इस प्रकार वह ‘भय’ से मुक्त है और ‘निरभउ’ (निर्भय) है। ठीक इसी प्रकार ही मनुष्य को भी ‘निरभउ’ (निर्भय) अवस्था की प्राप्ति करने के साथ ही माया के इन बंधनों से मुक्ति मिल सकती है और वह पूर्ण सत्य की सेवा करने के योग्य हो सकता है, पूर्ण सत्य का वितरण करने के योग्य हो सकता है। केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) मनुष्य ही परोपकार एवं महा परोपकार के गुरप्रसादि की कृपा प्राप्त कर सकता है। केवल ‘निरभउ’ (निर्भय) मनुष्य ही पूर्ण भक्ति और सदा सुहाग प्राप्त कर सकता है।

 

निरवैर

‘निरवैर’ होना सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की अगली परम शक्ति है। इस परम शक्ति को गुणी निधान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर का परम गुण भी कहा जाता है। सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर ‘करता पुरख’ (कर्ता पुरुष) है और सारी रचना में आप समाया हुआ है और सारी रचना का स्वयं लालन-पालन व सेवा-संभालता कर रहा है। इसलिए उस के साथ किसी का वैर नहीं है। इसलिए सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर ‘निरवैर’ है क्योंकि सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर ‘निरवैर’ है इसलिए वह ‘एक दृष्ट’ है। ‘एक दृष्ट’ होने के कारण सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर का सारी सृष्टि के साथ एक सा प्यार है और उस के दर पर किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं है। वह किसी के भी अवगुणों को नहीं ख्याल करता है। सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर का सर्वत्र खंडों-ब्रह्मांडों, लाख चौरासी मेदिनी के साथ भी वैर नहीं है। वह सब सृष्टि का मित्र है। वह सबका माता-पिता है। महा-परोपकारी है और सब का भला माँगता है। सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की दरगाह के दरवाज़े सारी सृष्टि (जनसमूह) के लिए सदैव खुले हैं। ‘एक दृष्ट’ होने के कारण सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर असीम दयालु है, असीम कृपालु है, इस कारण वह अनंत क्षमा करने वाला है। हमारे सभी जन्मों-जन्मांतरों के अत्यंत पाप क्षमा करने में एक क्षण भी नहीं लगाता है। अपनी छोटी से छोटी व नीची से नीची रचना में भी स्वयं समाया होने के कारण वह असीम विनम्रता का स्रोत है। असीम विनम्रता के इस परम शक्ति का मालिक होने के कारण उस की प्राप्ति का मार्ग अति विनम्रता का मार्ग है। इसलिए अति अनंत विनम्रता व दीनता दरगाह की कुंजी है। इसलिए ‘निरवैर’ बनने की इस परम शक्ति की प्राप्ति के साथ ही अकाल पुरुष में अभिन्न हुआ जा सकता है। ‘निरवैर’ होने की परम शक्ति की प्राप्ति का अर्थ है: एक दृष्ट हो जाने की परम शक्ति की प्राप्ति; परम अनुकम्पा की परम शक्ति की प्राप्ति; गुनहगारों को क्षमा करने परम शक्ति की प्राप्ति; असीम विनम्रता एवं दीनता की परम शक्ति की प्राप्ति। ‘निरवैर’ होने का अर्थ है: एक दृष्ट होने के परम गुण की प्राप्ति; परम दयालु होने के परम गुण की प्राप्ति; गुनहगारों को क्षमा करने के परम गुण की प्राप्ति; असीम विनम्रता एवं दीनता के परम गुण की प्राप्ति एवं इन परम गुणों के साथ अपने हृदय को भरपूर कर लेने के गुरप्रसादि की प्राप्ति। हमारे मनुष्य जीवन के लिए अपनी भक्ति को पूर्ण अवस्था में देखने के लिए ‘निरवैर’ का यह तथ्य समझना अति आवश्यक है क्योंकि केवल ‘निरवैर’ ही हृदय की पूर्ण सत्यवादी अनुपालन में जा सकता है। केवल ‘निरवैर’ ही पूर्ण ‘सति’ में समा सकता है। केवल ‘निरवैर’ ही माया को जीत कर त्रय गुण से परे जा कर सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर में लीन हो सकता है। केवल ‘निरवैर’ ही पूर्ण सति की सेवा कर सकता है। केवल ‘निरवैर’ ही पूर्ण सति का वितरण कर सकता है। इसलिए मनुष्य जीवन को अकाल पुरुष में अभिन्न करने के लिए ‘निरवैर’ अवस्था की प्राप्ति करना तथा पूर्ण भक्ति के लिए दरगाही हुक्म है। केवल ‘निरवैर’ मनुष्य ही परोपकार एवं महा परोपकार के गुरप्रसादि की कृपा प्राप्त कर सकता है। केवल ‘निरवैर’ मनुष्य ही पूर्ण भक्ति तथा सदा सुहाग प्राप्त कर सकता है।

 

अकाल मूरति (काल रहित मूर्ति)

‘करता पुरख’ सारी सृष्टि का रचयिता है इसलिए काल का एवं शून्य का रचयिता भी अकाल पुरुष ‘ ੴ सतिनामु’ ही है। इसलिए काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। सो वह काल एवं शून्य से परे है। वह महान परम, असीम, अनंत शक्ति न ही काल एवं शून्य से पैदा होती है और न ही काल एवं शून्य में मर सकती है। जो-जो काल एवं शून्य में जन्म लेता है, उस का अंत काल एवं शून्य में निश्चित है। जो-जो काल एवं शून्य में जन्म लेता है उस ऊपर काल का प्रभाव होना निश्चित है। जो-जो काल एवं शून्य में जन्म लेता है वह काल के हर क्षण के साथ परिवर्तनशील है। जो-जो काल एवं शून्य में जन्म लेता है उस में हर पल परिवर्तन जारी रहता है। यह परिवर्तन हर पल उस को अंत की ओर लेकर जाता है क्योंकि हर रचना का सृजन काल एवं शून्य में होता है और हो रहा है, इसलिए हर एक रचना परिवर्तनशील है और इसलिए हर एक रचना का आदि भी है और अंत भी है। इसलिए जो-जो परिवर्तनशील है वह सति नहीं है। सो जो-जो परिवर्तनशील है, वह असति है। क्योंकि जो-जो परिवर्तनशील है उस का आदि और अंत निश्चित है और वह असति है इसलिए वह माया है। सो जो सति नहीं है वह माया है। इसलिए सारी रचना का विनाश निश्चित है और इस गुण के कारण सारी रचना असति है और माया है। इसका तात्पर्य यह है कि सारी रचना का सृजन माया के अधीन होता है और हो रहा है। इस का अभिप्राय यह है कि सारी रचना माया के त्रय गुणों के अधीन है: रजो गुण (ब्रह्मा); तमो गुण (महेश-शिवा) तथा सतो गुण (विष्णु)। इसलिए सारी सृष्टि की रचना, पालन-पोषण एवं संहार इन त्रय शक्तियों के अधीन होता है। इन त्रय गुण शक्तियों का निर्माता भी ‘ੴ सतिनामु’ ही है। इसलिए वह एक परम, अनंत, असीम शक्ति त्रय गुण माया से परे है। इसलिए यह परम, अनंत, असीम शक्ति त्रय गुणों से परे की मूर्ति है। इस का तात्पर्य यह है कि ‘ੴ सतिनामु’ काल, शून्य और माया का निर्माता है और काल, शून्य एवं माया से परे है। सो ‘अकाल मूरति’ ‘ੴ सतिनामु’ का एक परम अनंत, असीम दिव्य ईश्वरीय गुण है। इसलिए ‘अकाल मूरति’ ‘ੴ सतिनामु’ की एक परम, अनंत, असीम दिव्य ईश्वरीय शक्ति है। इसलिए जो मनुष्य त्रय गुण माया को जीत लेता है वह मनुष्य (आत्मा) त्रय गुण माया से परे जा कर सति स्वरूप बन जाती है और ‘ੴ सतिनामु’ पूर्ण सति में समा जाती है परम पद की प्राप्ति करके जीवन मुक्ति प्राप्त करती है। ऐसी आत्मा का हृदय माया से मुक्ति का अनुपालन करके पूर्ण सत्यवादी अनुपालन में आ जाता है, पूर्ण शून्य की अवस्था में आ जाता है, निर्भय और शीलवंत (निरवैर) बन जाता है, जिस कारण ‘ੴ सतिनामु’ धन्य धन्य सति पारब्रह्म परमेश्वर को ऐसे हृदय में स्वयं प्रकट होना पड़ जाता है। ऐसा हृदय एक संत हृदय बन जाता है और पूर्ण ब्रह्म ज्ञान एवं पूर्ण तत्व ज्ञान की परम अनंत स्वर्गीय शक्तियों एवं खज़ानों के साथ सम्मानित किया जाता है।

 

अजूनी (योनियों में जन्म-मरण से परे)

‘करता पुरखु’ (कर्ता पुरुष) सारी सृष्टि का निर्माता है तथा ‘अकाल मूरति’ (काल रहित मूर्ति) है। इसलिए वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त है क्योंकि काल एवं त्रय गुण माया से परे है, इसलिए वह न जन्म लेता है न मरता है क्योंकि वह काल और त्रय गुण माया का भी निर्माता है। सो वह परम अनंत, असीम शक्तियों का रचयिता तथा स्वामी है। काल और माया से परे होने के कारण वह जन्म-मरण से रहित है और सार्वकालिक है। वह ‘आदि-जुगादि’ (आदि काल से एवं युगों-युगों से) से सदा जीवित है और उसका कभी अंत नहीं होता। न ही उस के आदि का और न ही उसके अंत का किसी को भेद प्राप्त हुआ है। इसी लिए वह सदैव असीम और अनंत है, सदा-सदा अनादि है। क्योंकि वह 84 लाख योनियों में नहीं आता है। इसलिए जो आत्मा त्रय गुण माया को जीत कर माया से परे चली जाती है वह ‘ੴ सतिनामु’ में समा जाती है। सो वह अपनी हस्ती को गंवा कर सदा-सदा के लिए शाश्वत हो जाती है। ऐसी आत्मा फिर जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाती है। ऐसी आत्मा जीवन-मुक्त हो जाती है और ‘अजूनी’ बन जाती है।

 

सैभं (स्वयंभू:)

‘ੴ सतिनामु’ ने अपना सृजन स्वयं किया है और उसने अपना नाम ‘सतिनाम’ (उच्चारण: सतनाम) स्वयं रचा है। फिर उस ने ‘करता पुरख’ बन सारी सृष्टि का सृजन किया है। वह ‘अकाल मूरति’ है, काल से परे है, त्रय गुण माया का निर्माता है इसलिए वह त्रय गुण माया से परे है। इन सारे परम गुणों और परम अनंत असीम शक्तियों का स्रोत और स्वामी होने के कारण वह अपना आधार स्वयं आप है। अपने आप से स्वयं ही प्रकाशमान है। अपने सहारे स्वयं ही प्रकाशमान है। उसको किसी और सहारे की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं हर एक रचना का सहारा स्वयं है। वह महान परम अनंत असीम शक्ति है और सारी रचना का आप सहारा है। सारी रचना का आधार होने के कारण सारी रचना में वह स्वयं समाया हुआ है। सारी रचना की सेवा-संभाल वह स्वयं कर रहा है। उसका कोई प्रकाश करने का सामर्थ्य नहीं रख सकता है। वह सर्व-व्यापक है और अपनी निर्गुण परम शक्ति के साथ सारे सर्गुण स्वरूप की सेवा-संभालता वह स्वयं कर रहा है।

 

 

गुरप्रसादि (ईश्वर की कृपा)

‘ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं’ ‘गुर प्रसादि’ है। नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण भक्ति और सेवा-परोपकार एवं महा परोपकार इस महा मंत्र मूल-मंत्र में समाया हुआ है। सभी परम अनंत असीम शक्तियाँ इस महा मंत्र मूल-मंत्र में समाईं हुईं हैं। इस महा मंत्र मूल-मंत्र नाम, नाम-सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण भक्ति और सेवा का परोपकार एवं महा परोपकार का स्रोत है। यह महा मंत्र मूल-मंत्र अमृत का स्रोत है, जीवन मुक्ति का स्रोत है, हृदय में परम ज्योति पूर्ण प्रकाश का स्रोत है, माया को जीतने की परम शक्ति का स्रोत है, हृदय को पूर्ण सत्यवादी अनुपालन की कृपा प्राप्त करवाने का स्रोत है, परम अवस्था प्राप्त करने का स्रोत है। यह सब ‘गुरप्रसादि’ है। ‘गुर’ का अभिप्राय है अकाल पुरुष धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर तथा ‘प्रसादि’ का अभिप्राय है: कृपा, अनुग्रह, इनायत, अनुमोदन, आशीष, परम शक्ति। केवल अकाल पुरुष धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की कृपा, अनुग्रह, आशीष, परम शक्ति द्वारा ही प्राप्त होता है। संत सतिगुरु जिस में वह स्वयं साक्षात्कार है और वह स्वयं संवितरित है, के द्वारा, नाम स्वरूप में वितरण किया जाता है। सतिगुरु की कृपा के साथ ही नाम प्रफुल्लित होता है। अंत में कूड़ (अधर्म व असत्य) की दीवार तोड़ कर, आंतरिक सतिगुरु बाहरी सतिगुरु के साथ जुड़ जाता है, यानि निर्गुण और सर्गुण (अकाल पुरुष के दोनों हिस्से) जुड़ जाते हैं और मनुष्य को जीते जी ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। मनुष्य जीते जी जीवन मुक्त होता है।

धन्य धन्य श्री गुरु अवतार धन्य धन्य नानक पातशाह ही हमें अपनी असीम दयालुता के साथ गुर कृपा तथा गुरप्रसादि की महिमा के बारे पूर्ण ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। हमारे जीवन का आधार गुर कृपा है। हमारे जीवन में हर चीज़ गुर कृपा के साथ हमारे भले के लिए ही घटित होती है। गुर कृपा की इस महान शक्ति के साथ ही हम पाँच दूतों: काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार पर जीत पा सकते हैं और तृष्णा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। गुरकृपा और गुरप्रसादि धन्य धन्य पारब्रह्म पिता परमेश्वर की असीम दरगाही शक्तियाँ हैं। गुर कृपा और गुरप्रसादि की प्राप्ति बड़े सौभाग्य के साथ प्राप्त होती है। इस असीम शक्ति के कारण ही हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार एवं आशा, तृष्णा एवं मनसा पर विजय प्राप्त कर जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकते है। इस असीम शक्ति के कारण ही हम माया पर जीत प्राप्त कर दरगाह में सम्मान प्राप्त कर सकते है। इस असीम शक्ति के कारण ही हम अपने हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन प्राप्त करके परम पद की प्राप्ति कर सकते हैं। इस असीम शक्ति के कारण ही हम सहज अवस्था और अटल अवस्था की प्राप्ति कर अकाल पुरुष के निर्गुण स्वरूप में लीन हो सकते हैं। यहाँ दासन दास के निजी अनुभव के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि बहुत सारे लोगों (करोड़ों में) को गुर कृपा एवं गुरप्रसादि की प्राप्ति होती है, परंतु कोई विरला ही इस गुर कृपा एवं गुरप्रसादि की सेवा-संभालता कर दरगाह में सम्मान प्राप्त करता है। इसका बड़ा कारण केवल सेवा-संभालता की कमी है, केवल अपना आप समर्पित करने की कमी है, केवल अपने तन, मन, धन को गुरु के चरणों में अर्पित करने की कमी है, केवल मनमति त्याग कर गुरमति को अपनाने की कमी है। दूसरा बड़ा कारण है माया के हाथों हार जाना। बंदगी और कुछ नहीं, केवल माया के साथ युद्ध है तथा इस युद्ध में आम लोग माया के आगे अपने शस्त्र गिरा देते हैं और माया का मुकाबला न कर माया से हार मान कर फिर से अपनी पहले वाली ज़िंदगी में चले जाते हैं। कई लोग तो सुहाग की प्राप्ति कर कर्म खंड से फिर वापिस धर्म खंड में जा गिरते हैं। दासन दास के निजी जीवन में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। इसलिए आप सब के चरणों में दोनों हाथ जोड़ कर दासन दास की विनती है कि यदि आप को गुर कृपा और गुरप्रसादि के इस सौभाग्य की प्राप्ति होती है तो इस की सेवा-संभालता करें जी। जब आप इस गुर कृपा और गुरप्रसादि की पूर्ण निष्कपटता व भोलेपन के साथ सेवा-संभालता करेंगे, तब आप पूर्ण भरोसे, श्रद्धा एवं प्रीति के साथ अपना आप गुरु के चरणों में अर्पण कर तन, मन, धन के साथ गुरु की सेवा में लीन हो जाएंगे तब गुरु आपकी भुजा पकड़ कर आपको माया के झकोरों से पूर्ण रूप से रक्षा कर माया के भवसागर से पार ले जाएगा और दरगाह में सम्मान प्रदान कर आप को अपने जैसा बना कर अकाल पुरुष के दर्शन करवा कर उस के चरणों में पूरी तरह से लीन कर देगा।

सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के यह सारे गुण और परम शक्तियाँ उस के गुरप्रसादी नाम ‘सतिनामु’ में मौजूद हैं। मूल-मंत्र व्याख्या से परे है, असीम है, अनंत है। सारा ही गुरु ग्रंथ साहिब उस के व्याख्या का एक यत्न है। मूल मंत्र ही बीज-मंत्र है।

बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥

(पन्ना २७४)

‘आदि-जुगादि’ (युगो-युग) से सचखंड में लगातार गुरबाणी का प्रवाह चल रहा है, जिसका अभिप्राय है कि अकाल पुरुष के गुण एवं संत पुरुषों के आने-जाने की कभी न टूटने वाली शृंखला है। यह एक न टूटने शृंखला इसलिए है, क्योंकि सति पारब्रह्म के गुण असीम हैं, उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ असीम अनंत हैं और यह शृंखला भी उस असीमता का वर्णन करती है और विस्तरण करती है। समझने वाली बात यह है कि ‘ ‘ੴ सतिनामु’ गुरप्रसादी है। नाम, नाम सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी के गुरप्रसादि को प्राप्त करने के बाद, संत सतिगुरु की संगत अधीन पूर्ण श्रद्धा, प्रीत एवं विश्वास के साथ नाम-सिमरन करने से और अपना तन, मन, धन समर्पित करने से सचखंड का निवासी बना जाता है और पूर्ण ब्रह्म ज्ञान, पूर्ण तत्व ज्ञान के गुरप्रसादि की प्राप्ति होती है, परोपकार एवं महा परोपकार जैसी असीम सेवा का गुरप्रसादि प्राप्त होता है। पूर्ण संत, सतिगुरु, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी ही गुरप्रसादि का स्रोत है।

जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ॥ ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ॥

(पन्ना २८५)

केवल सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की ओर से जिन पूर्ण संतों, सतिगुरुओं, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानियों को गुरप्रसादि वितरित करने की सेवा की कृपा प्रदान होती है, वे ही इस गुरप्रसादि का दान दे सकते हैं, दूसरे नहीं। जिन व्यक्तियों को गुरप्रसादि की प्राप्ति होती है उनके सौभाग्य होते हैं। जिन को अभी गुरप्रसादि नहीं प्राप्त हुआ, उन्हें प्रार्थना करते रहना चाहिए ताकि उन्हें भी गुरप्रसादि प्राप्त हो सके। शुद्ध हृदय के साथ की हुई प्रार्थना एवं पूर्व कर्मों के अंकुर, जिज्ञासु को पूर्ण संत सतिगुरु के साथ मिलाते हैं और फिर गुरप्रसादि प्राप्त होता है।

भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ॥

प्रभु अबिनासी घर महि माइआ॥

(पन्ना ९७)

 

ऐसा संत मिलावउ मो कउ कंत जिना के पासि॥

 

संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा॥ नामु प्रभु का लागा मीठा॥

(पन्ना २९३)

प्रभ का सिमरनु साध कै संगि॥ सर्ब निधान नानक हरि रंगि॥२॥

(पन्ना २६२)

 

साध जना की मागउ धूरि॥ पारब्रह्म मेरी सरधा पूरि॥

(पन्ना २७३)

 

 

कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु॥ रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥

(पन्ना १३७३)

 

सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ॥

(पन्ना २८६)

 

नामु अमोलकु रतनु है पूरे सतिगुर पासि॥

(पन्ना ४०)

सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ॥

(पन्ना २८६)

 

नानक ब्रह्म गिआनी आपि परमेसुर॥

(पन्ना २७३)

ब्रह्म गिआनी आपि निरंकारु॥

(पन्ना २७४)

ब्रह्म गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता॥ ब्रह्म गिआनी पूरन पुरखु बिधाता॥

(पन्ना २७३)

 

 नानक साध प्रभ भेदु न भाई॥

(पन्ना २७२)

 

साध की सोभा का नाही अंत॥ साध की सोभा सदा बेअंत॥

(पन्ना २७२)

 

 

सो केवल पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, पूर्ण संत, पूर्ण साध, सतिगुर, ‘प्रगटिओ जोति’ (प्रकट हो चुकि ज्योति) ही संगत को गुरप्रसादि देने के समर्थ है। गुरबाणी श्लोकों एवं शब्दों के साथ भरपूर है, जो यह दृढ़ करवाते हैं कि नाम क्या है? तथा कैसे प्राप्त होता है?

सलोक

जपु॥

आदि सचु जुगादि सचु॥ है भी सचु नानक होसी भी सचु॥१॥

 

मूल मंत्र के आगे शब्द ‘जपु’ जो कि सिमरन के लिए महा सुंदर एवं परम शक्तिशाली उपदेश है। जो कि धन्य धन्य सतिगुर अवतार नानक पातशाह जी की हिदायत है कि सिमरन करो जी। जो कि इलाही दरगाही हुक्म है कि नाम सिमरन करो। क्योंकि:-

  • १ सति (अनादि सत्य) है और यह ही ‘सति’ ‘नामु’ (नाम) है
  • कर्ता पुरुष ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • ‘निरभउ’ (निर्भय) ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • ‘निरवैर’ ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • ‘अकाल मूरति’ ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • ‘अजूनी’ (योनियों में जन्म-मरण से परे) ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • सैभं (स्वयंभू:) ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।
  • गुरप्रसादि (ईश्वर की कृपा) ‘सति’ है इस लिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है।

 

 

इसलिए सारा मूल मंत्र ‘सति’ है इसलिए यह ‘सति’ ही ‘नामु’ है। इसी लिए धन्य धन्य सतिगुर अवतार नानक पातशाह जी ने ‘सतिनामु’ का उच्चारण किया है। सो शब्द ‘सति’ सृष्टि का गर्भ है। इसलिए शब्द ‘सति’ सभी परम शक्तियों का गर्भ है। इसलिए शब्दए ‘सति’ सभी परम इलाही गुणों का गर्भ है। इसलिए ‘सति’ केवल एक शब्द ही नहीं है। सारी गुरबाणी ‘सति’ है इसलिए यह ‘सति’ ‘नाम’ है क्योंकि गुरबाणी ‘सति’ में से प्रकट हुई है, हो रही है और होती रहेगी। गुरबाणी केवल धन्य धन्य गुरू ग्रंथ साहिब तक ही सीमित नहीं है। दरगाह में गुरबाणी लगातार प्रकट हो रही है। दरगाह में गुरबाणी के अंकों की कोई गणना नहीं है। दरगाह में गुरबाणी के अंक कभी समाप्त नहीं होते हैं। इसलिए यह सति ही ‘नाम’ है। यह सति केवल नाम ही नहीं है बल्कि यह सति ही परम शक्ति आप है, परम शक्ति विद्यमान है, परम शक्ति सर्व-व्यापक है। सतिनाम ही परम दरगाही हुक्म है: ‘एको नामु हुकमु है’ (पन्ना ९२)। इसलिए धन्य धन्य सतिगुर अवतार नानक पातशाह जी ने असीम कृपा के साथ अकाल पुरुष के पूर्ण हुक्म के अनुसार इस महा मंत्र अनमोल रत्न ‘सतिनामु’ का उच्चारण कर हमारी सब मनुष्यता की झोली में इस महा मंत्र को डाल कर सच खंड का पथ प्रदर्शन किया है और इसका सिमरन करने से सब जन-समूह का सर्वोच्च शिखर का उपदेश दिया है। क्योंकि सारा मूल-मंत्र ही सति है इसलिए ‘सतिनामु’ के सिमरन में ही सभी परम शक्तियाँ समाईं हुईं हैं। सो धन्य धन्य भाई गुरदास जी की पहली वार में ही सतिनाम की महिमा का वर्णन किया गया है। कई संत-महापुरुष पहले सारे मूल-मंत्र का जाप करने का उपदेश देते हैं और फिर सतिनाम के गुरप्रसादि की कृपा करते हैं और कुछ महापुरुष ही हैं जो पहले से ही सतिनाम का अनमोल रत्न गुरप्रसादि के साथ आपकी सुरति में टिका देते हैं। गुरबाणी अनुसार केवल सतिनाम के गुरप्रसादि के साथ ही सुरति की लिव (समाधि/ध्यान) लगती है। केवल सतिनाम के सिमरन के साथ ही सुरति, हृदय और समस्त आत्मा कंचन होती हैं। केवल सतिनाम सिमरन के साथ ही कुंडलनी शक्ति जागृत होती है। केवल सतिनाम सिमरन के साथ ही सारे ‘बजर कपाट’ खुलते हैं। केवल सतिनाम सिमरन के साथ ही सारे (७) सात सरोवर प्रकाशमान होते हैं। केवल सतिनाम सिमरन के साथ ही इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की शक्तियाँ जागृत होती हैं और समाधि एवं शून्य समाधि के गुरप्रसादि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सिमरन करते हुए नाम-सिमरन रोम-रोम मे चला जाता है और भक्त जन सतिनाम रस में रंजित हो जाते हैं और माया पर विजय प्राप्त कर त्रय गुण माया से परे जा कर अकाल पुरुष जी के दर्शन प्राप्त कर पूर्ण ब्रह्म ज्ञान, आत्म रस अमृत और पूर्ण तत्व ज्ञान के गुरप्रसादि को प्राप्त करके परम पद की प्राप्ति कर लेते हैं। इसलिए सिमरन कीजिए नाम का अनादि सत्य—’सति’, ‘सतिनाम ‘ जो नाम अमृत के तौर पर भी वर्णित और अनुभव किया गया जाता है। ‘सति’ (उच्चारण:- सत्) का भाव है — अनादि सत्य। सतिनाम का अभिप्राय है कि परमात्मा का नाम अनादि सत्य है। नाम का सिमरन करने से हम अपने भीतर अनादि ‘सति’ के साथ रंजित एवं जज्ब होते हैं और सतिनाम हमारे रोम-रोम में प्रकट होता है। सिमरन का अभिप्राय है:

  • सति को अपनी याद में उत्कीर्ण करना
  • सति को अपने मन (सुरति) में उत्कीर्ण करना।
  • सति को अपने आत्मिक दिल (हृदय) में प्रेम के साथ याद करना।
  • सति को अपने शरीर के रोम-रोम में अभिन्न करना।
  • सुरति एवं हृदय का सति स्वरूप बन जाना।
  • स्वयं सतिनाम बन जाना (‘हरि का नामु जन का रूप रंगु॥’)
  • सति में समा जाना।
  • सति में अभिन्न हो जाना।

शब्द ‘जप’ के पश्चात् अगला शब्द है “आदि सचु जुगादि सचु॥ है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥” इसका भावार्थ है कि वह परम शक्तिशाली सर्व कला भरपूर हस्ती जो मूल-मंत्र में प्रकट की गई है। केवल यह हस्ती ही अनादि सत्य (सति) है और यह ना पता योग समय से (अनिश्चित समय से) उत्पत्ति के समय से मौजूद है यानि सदा से कायम-दायम है, जन्म समय से मौजूद है भाव सदा से कायम- मुदायम है, सभी युगों में प्रत्यक्ष व्यापक रहा है, अब भी व्यापक है और भविष्य में भी व्यापक रहेगा। इसका तात्पर्य यह है कि मूल- मंत्र आदि काल से वर्तमान तक प्रत्यक्ष व्यापक रहा है और आने वाले सभी युगों में अंत तक व्यापक रहेगा।

आदि का तात्पर्य है—अज्ञात समय से सति पारब्रह्म परिपूर्ण परमात्मा ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले भी मौजूद था। गुरबाणी कहती है कि सृष्टि का सृजन करने से पहले अकाल पुरुष 36 युगों के लिए शून्य समाधि में स्थित था। यानि एक अज्ञात समय से कि उन 36 युगों के समय की लंबाई अज्ञात है। शब्द”आदि”का भाव है शुरुआत। यहाँ उस की उपस्थिति की शुरुआत की कोई परिभाषा नहीं है और वह असंख्य है, अनन्त, सीमा रहित एवं अपार है। उपस्थिति का भाव ‘सति’ है। वह परम शक्तिशाली हस्ती जो कि ‘अमितोज’ है, जो कि असंख्य है, अनन्त है और परिवर्तनशील नहीं है और शाश्वत है।

जुगादि का भाव है परमात्मा सभी युगों से मौजूद है और सभी आने वाले युगों में भी रहेगा। यहाँ सभी युगों की कोई परिभाषा नहीं है और समय की कोई परिभाषा नहीं है। युग की रचना मानव जाति के नीचे लिखे गुणों के आधार पर होती है।

  • व्यवहार
  • मौजूदा सोच
  • धार्मिक विश्वास
  • चरित्र और
  • कर्म

जब इन गुणों में बड़ा परिवर्तन आता है तो युग बदलता है। इसलिए किसी भी युग को समय की लंबाई की परिभाषा में बयान नहीं किया जा सकता है। यहाँ भाव यह है कि सति परम पारब्रह्म परमेश्वर की उपस्थिति समस्त पिछले समय से है, वर्तमान समय में है और समस्त आने वाले समय में रहेगी। यह विश्वास किया जाता है और गुरबाणी में कहा गया है कि इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति से यहाँ चार युग हुए हैं। परन्तु अकाल पुरुष की उपस्थिति इन चार युगों से परे है। अभिप्राय यह है कि मूल-मंत्र में बयान किए अनादि सति की उपस्थिति अब भी है। ‘होसी भी’ का भाव है परमात्मा आने वाले युगों में भी मौजूद रहेगा। इस का भाव है कि अकाल पुरुष:

  • केवल अनादि सति है जो कि इस ब्रह्मांड की अज्ञात शुरुआत (आदि) उत्पत्ति के समय से पहले मौजूद है।
  • रचना की उत्पत्ति समय युगों-युगों से (जुगादि) मौजूद है।
  • वर्तमान व भविष्य समय (होसी भी) केवल अनादि सति है।
  • बाकी सारी गुरबाणी इस ऊपर बयान किये अनादि ‘सति’ शब्द की व्याख्या है। यह सति की महिमा है, भाव कि गुरबाणी:
    • मूल- मंत्र की व्याख्या और महिमा है जो कि अपने आप में व्याख्या है और अनादि ( परमात्मा) के प्रभावी गुणों की महिमा है।
    • हमें बताती है कि हमारे साथ क्या घटित होता है यदि हम अनादि सति की पालना करते हैं।
    • हमें बताती है उन रूहों के साथ क्या घटित होता है जो अनादि सति में लीन हो जातीं हैं।
    • हमें बताती है कि वह रूहें सति का मंदिर हैं, जिन की पहुँच पूर्ण ब्रह्म ज्ञान तक है।
    • सति में लीन होने के लिए कहती है।
    • परम तत्व के साथ एक होना बताती है और
    • उस के स्वरूप जैसा बनना बताती है।

बहुत सारी संगत इस भ्रम में है कि गुरबाणी पढ़ना ही सिमरन है। जो कि एक गलत धारणा है और एक बड़ा भ्रम है। इस समझ के साथ कि गुरबाणी पढ़ना ही सिमरन है आम संगत गुरबाणी पढ़ने पर ज़ोर देती है। यह समझना कि गुरबाणी पढ़ने के साथ ही हमारा जीवन बेहतर हो जायेगा एक बड़ा भ्रम है। गुरबाणी पढ़ने और गुरबाणी करने में बहुत बड़ा अंतर है। गुरबाणी करने (अमल करने का) का उपदेश देती है, खाली पढ़ने का ही नहीं उपदेश देती है। गुरबाणी करने से तात्पर्य है शब्द की कमाई करना। जो शब्द उपदेश देता है उसे अपनी रोज़मर्रा के कर्मों में ले कर आना ही रूहानी सफलता की कुंजी है। गुरबाणी का सब से बड़ा और परम शक्तिशाली उपदेश है सिमरन करना। सिमरन करने के साथ ही सभी दरगाही ईश्वरीय खज़ानों की प्राप्ति होती है। इसीलिए धन्य धन्य सतिगुरू अवतार नानक पातशाह जी ने ‘जपु’ का परम शक्तिशाली दरगाही हुक्म हम समस्त जनसमूह को सुनाया है। इसलिए हमें इस हुक्म की हृदय के साथ, पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण प्रीत और पूर्ण भरोसे के साथ पालना करने का प्रण कर अपने आप को गुरू चरणों में पूर्ण समर्पित करके सिमरन में लीन हो जाना चाहिए और इस जन्म में परम अवस्था की प्राप्ति कर लेनी चाहिए। यह ही सारी जपुजी बाणी का सार है।

 

 

गुरप्रसादी कथा — जपु जी पउड़ी १

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥

भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥

सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥

किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥

हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥

 

धन्य धन्य सतिगुरु अवतार नानक पातशाह जी पूर्ण ब्रह्म ज्ञान के इस श्लोक में हृदय को, मन को, और सारी देह को पवित्र करने के गुरप्रसाद की सुंदर कथा हमारी पूरी मानवता की झोली में डाल रहें हैं। सारी जपु जी गुरबाणी पूरी मानवता के लिए सच खंड के इस महान और शक्तिशाली मार्ग का प्रदर्शन करती है। यह परम शक्तिशाली गुरबाणी पूरी मानव जाति को रहती दुनिया तक सच खंड के मार्ग का पूरा रास्ता दिखलाती है। जो इस गुरबाणी को अपने जीवन में अंकित कर लेते हैं, वे धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर से असीम अनंत वरदान प्राप्त करते हैं, और अपने हृदय को सच खंड बना कर अकाल पुरुष को इसमें प्रकट कर लेते हैं।

आइये अगम अगोचर अनंत असीम धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर और धन्य धन्य गुरु जी के सामने प्रार्थना करें, हाथ जोड़ें और उनके श्री चरणों में कोटि कोटि दंडवत प्रणाम करें, एक गरीबी वेश हृदय के साथ, पूरे भरोसे और यकीन के साथ, पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ, पूरी श्रद्धा और प्यार के साथ प्रार्थना करें कि हमें भीतरी सति भाव के साथ शब्द “सच खंड” का असली ब्रह्म भाव समझने में हमारी मदद करें। शब्द “सच खंड” दो शब्दों, “सच” और “खंड” से मिलकर बना है। शब्द “सच” का अर्थ है अनादि सति निर्गुण स्वरूप परम ज्योत पूर्ण प्रकाश धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी स्वयं आप, और शब्द “खंड” से अभिप्राय है वह स्थान जहाँ निर्गुण स्वरूप परम ज्योत पूर्ण प्रकाश धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर अपने समस्त स्थूल और रूहानी (आध्यात्मिक) भाव में प्रकट होता है। सच खंड एक पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, एक पूर्ण संत सतिगुरु का ‘हिरदा’ (रूहानी हृदय) है। एक पूर्ण संत सतिगुरु वह है, जिसने एक पूरे ‘सचियारे’ (सत्यवादी) हृदय की कमाई (साधना, पालना) की है, जिसने:-

  • पूर्ण ‘सचियारी रहत’ (सत्यवादी अनुपालन; गुरबाणी के शब्दों की भीतरी और सच्ची पालना, न कि बाहरी दिखावा) की घोर कमाई की है।
  • मन के ऊपर जीत के अनुपालन (दिल से पालना, न कि महज दिखावा) की कड़ी कमाई की है।
  • पाँच दूतों के ऊपर जीत के अनुपालन की घोर कमाई की है।
  • कोई इच्छा न होने के अनुपालन की घोर कमाई की है।
  • पूर्ण हुक्म के अनुपालन की कठोर कमाई की है – उसके सारे कर्म पूर्ण हुक्म के अधीन होते हैं।
  • ‘एक दृष्ट’ बनने के अनुपालन की घोर कमाई की है।
  • ‘निरभउ’ (निर्भय) और ‘निरवैर’ (शीलवंत) बनने के अनुपालन की घोर कमाई की है।
  • पूरी सृष्टि में परमात्मा को समान रूप से देखने की, उसकी हर रचना को प्यार करने के अनुपालन की घोर कमाई की है।
  • निरंतर रूप से ‘आतम रस’ (आत्मिक रस) का आनंद मानने के अनुपालन की प्राप्ति की है।
  • रोम-रोम में नाम-सिमरन के अनुपालन की प्राप्ति की है।
  • अनहद शब्द के अखंड कीर्तन को निरंतर रूप से सुनने के अनुपालन की प्राप्ति की है।
  • जो अकाल पुरुष में अभिन्न हो गए हैं।
  • जिन के अंदर पूर्ण ज्योत का प्रकाश है।
  • जो परम पदवी को प्राप्त कर चुके हैं।
  • जो अंदरूनी तीर्थ यात्रा कर चुके हैं।
  • जो सच खंड में वास कर रहे हैं।
  • जो अनादि सति को देखते हैं, बोलते हैं, सुनते हैं, सति की सेवा करते हैं और सति पर चलते हैं।

एक पूर्ण संत सतिगुरु हृदय के अंदर सारे ब्रह्म गुण समाये हुए एक सदा सुहागन का निवास होता है। वह हृदय सच खंड है जिसमें परमात्मा रहता है, और जिस हृदय में प्रकट हो कर और जिसमें अपना निवास बना कर वह सारे संसार पर अपनी कृपा निछावर कर रहा है। ऐसा व्यक्ति केवल अनादि सति “ੴ सति नाम” को देखता है, सुनता है, बोलता है, सति की पालना करता है और सति की सेवा करता है। ऐसा स्थान जहाँ अनादि सति रहता है, जहाँ सति बसता है, जहाँ ब्रह्मता बसती है, जहाँ निर्गुण स्वरूप परम ज्योत पूर्ण प्रकाश धन्य धन्य सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर जी “सच खंड” में बसता है। ऐसा हृदय एक पूर्ण ख़ालसा हृदय है, और सारे अनादि ख़ज़ानों से अलंकृत है।

ऐसे सति हृदय की साधना बाहरी आचार-विचार रखने से प्राप्त नहीं होती है। ऐसे पूर्ण ‘सचियारे’ (सत्यवादी) हृदय का अनुपालन बाहरी लाख अनुवृत्ति की पालना करने से प्राप्त नहीं होता है। बाहरी अनुवृत्ति की पालना करने से हृदय की पूर्ण ‘सचियारी रहत’ (सत्यवादी अनुपालन) की प्राप्ति नहीं हो सकती है। धन्य धन्य सतिगुरु अवतार नानक पातशाह जी इस परम शक्तिशाली शब्द के साथ इस भ्रम का खंडन कर रहे हैं कि अंदरूनी अनुपालन की पालना बाहरी अनुवृत्ति का निर्वाह करने से नहीं होती है। सारी की सारी संगत महज़ केवल बाहरी अनुवृत्ति के पीछे हाथ धो कर पड़ी है। बाहरी वेशभूषा धारण करने से भीतरी तीर्थ यात्रा कैसे की जा सकती है? बाहरी अनुवृत्ति के निर्वाह से मन की मैल कैसे धुल सकती है? पूर्ण बंदगी एक अंदरूनी तीर्थ है। अकाल पुरुष को आपके भीतर से ही आपके हृदय में प्रकट होना है। अकाल पुरुष को आपके हृदय में ही प्रकट होना है। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान और पूर्ण तत्व ज्ञान को आपके भीतर से ही प्रकट होना है। मन की मैल और हृदय की मैल धुलने से ही आपका हृदय अंदरूनी अनुसरण की पालना कर सकता है, और पूर्ण ‘सचियारी रहत’ (सत्यवादी अनुपालन) में जा सकता है। मन की मैल धुलने से ही मन ज्योत के अंदर प्रकट हो सकता है। मन के ऊपर जन्मों-जन्मों की मैल चढ़ी होने की वजह से ही हम अपने मन को चुप नहीं करा पाते हैं। बाहर से चाहे हम जितना भी चुप रहने का यत्न कर लें, चाहे हम मौन भी धारण कर लें, परन्तु बाहरी मौन धारण करके हम अपने मन को शांत नहीं कर सकते हैं। हमारा मन निरंतर विचारों से भरपूर रहता है। ये विचार कभी खत्म नहीं होते हैं। मन के ऊपर जन्मों-जन्मों से चढ़ी मैल ही इन सारे विचारों का कारण होती है। ये सारे अंतहीन विचार हमारे मन के अंदर निरंतर घर कर जाते हैं, और कभी खत्म नहीं होते हैं। ये सारे विचार केवल माया के प्रभाव-वश ही होते हैं। माया की गुलामी में रहते मन कभी शांत नहीं हो सकता है। माया की गुलामी से तात्पर्य है पाँच दूतों की गुलामी: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की गुलामी तथा तृष्णा की गुलामी। तृष्णा, जो कभी नहीं बुझती, की गुलामी के कारण हमारे मन की क्षुधा कभी शांत नहीं होती है। तृष्णा से अभिप्राय है इच्छाओं का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला, जो निरंतर चलता रहता है। जिसके कारण हमारा मन और हृदय सदा ही तृष्णा की आग में झुलसते रहते हैं। माया की गुलामी का एक बड़ा कारण है मनुष्य का मनमति में रहना। मनमति ही माया है। स्वयं की लाख बुद्धिमत्तायें मिलकर भी मन की मैल नहीं धो सकती हैं। क्योंकि स्वयं की बुद्धिमत्ता ही मनमति है, जो कि माया है, और माया की दासता में मन और हृदय की मैल कैसे धुल सकती है? गुरमति के अलावा सब कुछ मनमति ही है। गुरमति को छोड़कर सब कुछ माया ही है। मनमति में रहना और माया की गुलामी करना ही मन की मैल के बड़े कारण हैं। यह मन और हृदय जन्मों-जन्मों से मनमति में माया की गुलामी के अधीन किये गए सारे असति (असत्य) कर्मों की मैल से काले स्याह हो गए हैं। इस लिए ये कैसे शांत हो सकते हैं? मतलब आज के समय में, यानि कि वर्तमान में भी, माया की गुलामी के अधीन विचरण करते हुए यह मन कैसे शांत हो सकता है? माया की गुलामी में सिर्फ भटकना ही है। माया की गुलामी में केवल दुःख और क्लेश ही हैं। माया की गुलामी में केवल ८४ लाख योनियों में भटकना ही है। अंदरूनी अनुपालन की पालना कर के ही हृदय पूर्ण सत्यवादी अनुपालन की पालना कर सकता है। ऊपर बताए गए समस्त अनुपालन एक संत हृदय के अनुपालन हैं, और इन अनुरूपताओं की पालना किये बिना अगाध समय से, यानि कि जन्मों-जन्मों से, मन और हृदय पर चढ़ी मैल नहीं उतर सकती है। बाहरी तीर्थ करने से भला भीतरी तीर्थ का फल कैसे मिल सकता है? यह मन और हृदय की मैल ही कूड़ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार बन गई है। माया की गुलामी ही कूड़ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार बन गई है। जन्मों-जन्मों से मन और हृदय पर हमेशा से लिपटी हुई यह मैल ही कूड़ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार बन गई है, जो कि हमारी आत्मा को उस पार जा कर अपने प्रियतम से मिलने से रोक रही है; यानि कि यह कूड़ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार कुछ और नहीं, बस त्रय गुण माया का बुना हुआ ताना-बाना ही है। अकाल पुरुष त्रय गुण माया से परे है, और हमारा मन और हृदय केवल माया का गुलाम बन कर रह गया है। इसलिए अकाल पुरुष के दर्शन केवल इस ‘कूड़’ की दीवार, यानि त्रय गुण माया से परे जा कर ही हो सकते हैं। हमारा मन और हृदय माया की विनाशकारी शक्तियों, जो कि रजो गुण और तमो गुण के नाम से वर्णित की गई हैं , के प्रभाव-वश दब कर रह गया है। ‘कूड़’ की दीवार को समझने के लिए माया की इन विनाशकारी शक्तियों का ज्ञान होना अति-आवश्यक है। इसलिए आइये, माया के इस खेल को समझने की कोशिश करें, ताकि हम इस ‘कूड़’ की दीवार को तोड़ सकें और नाम, नाम सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी, परोपकार और महा-परोपकार के गुरप्रसाद की प्राप्ति करके जीवन मुक्ति को हासिल कर सकें।मनुष्य के सब कार्य और सारे कर्म मनुष्य की पाँच इन्द्रियों के प्रभाव-अधीन किए जाते हैं – आँखों से देखना, रसना (ज़बान) से बोलना, कानों से सुनना, त्वचा से छूना और नाक से सूंघना; यह पाँचों इन्द्रियाँ मन के अधीन कार्य करती हैं। मनुष्य का मन सारी जानकारी मानवी ज्ञान से प्राप्त करता है। मानवी ज्ञान सांसारिक ज्ञान है, वह ज्ञान जो कि माया के तीन तत्वों के प्रभाव-अधीन होता है; ये तीन तत्व हैं:

  • तमो गुण : काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।
  • हमारी आत्मा के ये पाँच दुश्मन हमारे शरीर में वास करते हैं; इन्हीं को पाँच दूत भी कहा जाता है। इन्हें मानसिक रोग भी कहा जाता है।
  • रजो गुण : आशा, तृष्णा और मंशा (इच्छायें)।
  • सतो गुण : दया, धर्म, दान, संतोष तथा संयम।

कुछ लोग माया का अर्थ केवल धन दौलत मानते हैं; जो कि सत्य नहीं है। माया का दरगाही (रूहानी) अर्थ इन तीन गुणों के द्वारा ब्यान किया गया है। गुरबाणी में माया को अंधकार कहा गया है; इसको एक कीचड़ भी पुकारा गया है, जिसमें मानवता वास करती है; इसको एक नागिन भी कहा गया है — वह ‘सर्पणी’ (नागिन) जो हमेशा हमारे सर पर डसने के लिए तैयार रहती है। ‘जपु जी’ में इसको ‘कूड़’ की दीवार कहा गया है।

अगर आप अपने रोजमर्रा के कामों पर नज़र डालें, अगर आप अपनी दिनचर्या पर विचार करें, तो आप यह एहसास कर सकते हैं कि आपके सारे रोज़ाना के कामकाज माया के इन तीन गुणों के अधीन ही किये जाते हैं। केवल एक संत, साध (साधु), ब्रह्म ज्ञानी, पूर्ण ख़ालसा या सतिगुरु ही माया के इन तीन गुणों से परे है। केवल एक पूर्ण संत के कर्म, एक पूर्ण साध के कर्म, एक पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी के कर्म, एक पूरे ख़ालसा के कर्म, या एक सतिगुरु के कर्म ही पूर्ण हुक्म (परमात्मा की इच्छा या आदेश) के अधीन संपन्न होते हैं, और यह हुक्म परम ज्योत, यानि दरगाही ज्योत से उत्पन्न होता है, जिसका प्रकाश इन महापुरुषों के हृदय में सदा-सदा ही जगमगाता रहता है। इन महापुरुषों की सारी ज्ञान इन्द्रियाँ और कर्म इन्द्रियाँ परम ज्योत के हुक्म अधीन चलती हैं, क्योंकि ऐसी आत्माओं ने इस ‘कूड़’ की दीवार को तोड़ कर, त्रय गुण माया से परे जा कर अपने आप को ब्रह्म में लीन कर लिया होता है। इसलिए पूर्ण हुक्म में रहने का और विचरण करने का वरदान केवल और केवल माया को जीत कर ही प्राप्त होता है। केवल ऐसी ब्रह्म-आत्माएँ ही माया के इन तीन गुणों (रजो, तमो तथा सतो) से परे होती हैं और माया इनकी सेवा करती है; माया इनके चरणों में रहती है। शेष सारा संसार माया के अधीन चल रहा है और माया की गुलामी कर रहा है। जब तक हम स्वयं की बुद्धिमत्ता — मनमति पर चलेंगे, हम माया के वश में रहेंगे और माया की गुलामी करते रहेंगे। जब तक हम माया के रजो और तमो गुणों के प्रभाव-अधीन काम करेंगे, हम कभी भी मनुष्य-जीवन का लक्ष्य — जीवन मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाएंगे। जीवन मुक्ति माया के इन तीनों गुणों की पहुँच से परे है। अकाल पुरुष त्रय गुण माया से परे है। दरगाह त्रय गुण माया से परे है। ऐसे ही एक पूर्ण संत, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी, सतिगुरु और पूर्ण ख़ालसा भी त्रय गुण माया से परे है।

जीवन मुक्त लोग माया के प्रभाव-अधीन काम नहीं करते हैं। जीवन मुक्त लोग माया के ऊपर जीत प्राप्त करके, त्रय गुण माया से परे पहुँच कर अकाल पुरुष में अभिन्न हो जाते हैं। जीवन मुक्ति और कुछ नहीं बस केवल माया के चंगुल से आज़ाद होना है। जीवन मुक्ति माया से मुक्ति है। जीवन मुक्ति केवल स्वयं की बुद्धिमत्ता (मनमति) और सांसारिक बुद्धिमत्ता को समाप्त करने से और गुरमति को अपनाने से ही प्राप्त की जा सकती है। जीवन मुक्ति मन की मृत्यु का नाम है। मन की मृत्यु के साथ ही मनमति का अंत हो जाता है, और गुरमति के प्रकाश-सहित परम ज्योत हृदय में प्रकट हो जाती है; जो हृदय को पूर्ण ज्योत के प्रकाश से सराबोर करके असीम रूहानी शक्ति से अलंकृत कर देती है। इस प्रकार अपने मन को जीत कर, पाँच मानवीय इन्द्रियों को अपने वश में करके, और ब्रह्म ज्ञान की पालना करने से जीवन मुक्ति की प्राप्ति होती है। हालाँकि माया के दो गुण (रजो व तमो) आध्यात्मिकता के विरोधी हैं, लेकिन तीसरा गुण (सतो) आध्यात्मिकता के सफर का रास्ता तैयार करता है। माया का सतो गुण हमें जीवन मुक्ति की तरफ बढ़ने में हमारी मदद करता है। माया का सतो गुण दूसरे दोनों गुणों को पराजित कर ऐसी अवस्था में पहुँचने में हमारी मदद करता है जहाँ हम गुरप्रसाद प्राप्त कर सकें और अनादि वरदान प्राप्त कर सकें। सतो गुण के अधीन किये गए कर्मों के एकत्रित होने से हमें एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति होती है जहाँ हम सच खंड के रास्ते की ओर बढ़ सकते हैं, बंदगी के गुरप्रसाद की प्राप्ति कर सकते हैं और सर्व-शक्तिमान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के साथ अभिन्न हो सकते हैं। जीवन मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए, और इस मानव जीवन का मूल लक्ष्य प्राप्त करने के लिए, हमें माया के रजो और तमो गुणों (जिनके बारे में पहले वर्णन किया गया है) के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का उद्यम करना होगा। यह रूहानी संघर्ष, जो माया के रजो और तमो गुणों के विरुद्ध है, हम माया के तीसरे गुण — सतो की शक्ति, के अधीन चलते हुए गुरप्रसाद की प्राप्ति के साथ जीतना आरम्भ कर देते हैं। सतो गुणों पर चलते हुए जब हम अच्छाई की सर्वोत्तम अवस्था पर पहुँचते हैं तो हमें नाम, नाम सिमरन, नाम की कमाई, पूर्ण बंदगी और सेवा का गुरप्रसाद प्राप्त होता है। गुरप्रसाद की प्राप्ति के साथ हमारी माया के विरुद्ध संघर्ष में जीत हासिल करने की प्रक्रिया और तेज हो जाती है। गुरप्रसाद की सेवा-देखभाल करते हुए, भरपूर यत्न के साथ स्वयं को अर्पण करते हुए, तन-मन-धन गुरु के चरणों में समर्पित करके पूर्ण बंदगी की प्राप्ति होने के पश्चात बंदगी दरगाह में स्वीकृत होती है। इस प्रकार हम माया की रजो और तमो की विनाशकारी ताकतों के ऊपर जीत हासिल करते हैं और जीवन मुक्ति की अवस्था में पहुंचतें हैं। त्रय गुण माया से परे जाकर परम पद की प्राप्ति होती है और अटल अवस्था की प्राप्ति होती है। सारे कर्मों के बोझ से मुक्ति मिल जाती है। हम अपने आप को माया के चंगुल से आज़ाद कर लेते हैं।

सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण समझने वाली बात यह है कि हम माया के विरुद्ध इस संघर्ष में कौन से अस्त्रों-शस्त्रों का उपयोग करें। कौन से अस्त्र-शस्त्र ऐसे शक्तिशाली हैं जो कि माया की कमर तोड़ कर उसको हमारे अधीन करने की क्षमता रखते हैं? पहला और सब से सुन्दर, असीम शक्तिशाली माया का नाश करने वाला अस्त्र है गुरप्रसादी नाम। संगठित और नियमित रूप से, लगातार और यत्न के साथ नाम सिमरन करने से कई तरह के असीम और महा-शक्तिशाली पुरस्कार प्राप्त होते हैं। नाम सिमरन करना सर्व-शक्तिमान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की सब से उत्तम सेवा है। ‘प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा’, यानि कि नाम सिमरन अकाल पुरुष का सब से बड़ा हुक्म है। गुरबाणी कहती है कि नाम के बिना सब ‘कूड़’ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार है। यानि कि बाकी सारे कर्मकांड असति (मिथ्या, झूठे) हैं। सति कर्म भी रूहानी तौर पर तब तक लाभदायक नहीं होते हैं जब तक कि हम नाम सिमरन नहीं करते। जब हम नाम सिमरन करते हैं, तो नाम सिमरन हमें अंदरूनी तीर्थ यात्रा की ओर ले जाता है, जो कि सर्वोत्तम रूहानी और ब्रह्म तीर्थ यात्रा है। जब नाम सिमरन हमारी सुरति (अंतःकरण) में आता है और हृदय में आता है, केवल तब ही हमारी अंदरूनी तीर्थ यात्रा प्रारम्भ होती है। नाम सिमरन दशम-द्वार सहित हमारे सारे वज्र कपाट खोल देता है। नाम सिमरन सात (७) सरोवरों को, जो कि हमारे शरीर के अंदर रूहानी शक्ति के स्रोत हैं, प्रकाशमान कर देता है। आध्यात्मिकता के इन ७ सरोवरों को गुरबाणी में सति सरोवर कहा गया है। सति सरोवरों के प्रकाशमान होने से नाम रोम-रोम में उतर जाता है, और सारी देह अमृत से भरपूर हो जाती है। नाम सिमरन अंदरूनी तीर्थ यात्रा में हमारी मदद करता है, जो कि असल और वास्तविक तीर्थ यात्रा है। अंदरूनी तीर्थ ही असली रूहानी तीर्थ है, जो कि हमें हृदय के पूर्ण सत्यवादी अनुपालन में लेकर जाता है। हृदय के पूर्ण सत्यवादी अनुपालन से तात्पर्य है—काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार तथा आशा, तृष्णा और मंशा पर विजय की प्राप्ति, जो कि माया की कमर तोड़ कर उसको हमारा गुलाम बना देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें त्रय गुण माया से परे ले जाकर सर्व-शक्तिमान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के दर्शन की महान गुरकृपा और गुरप्रसाद का वरदान दिलाता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमारे हृदय को सारे आध्यात्मिक (दिव्य, अभौतिक) गुणों से भरपूर करके सारी आध्यात्मिक शक्तियों से अलंकृत कर देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें पूर्ण ब्रह्म ज्ञान और आतम रस अमृत (अमृत की सब से ऊँची अवस्था, अनादि आनंद) से भरपूर कर देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें पूर्ण तत्व ज्ञान के वरदानों वाले महान और परम शक्तिशाली गुरप्रसाद की प्राप्ति करा देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें परम पद की प्राप्ति करा देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें अटल अवस्था में ले जाता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें परम ज्योत पूर्ण प्रकाश से सुशोभित कर देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन को असीमता में ले जाता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें दरगाह में मान प्राप्त करवाता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें सदा-सदा के लिए दरगाह में स्थान प्राप्त करा देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें जीवन मुक्त कर देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें अकाल पुरुष के निर्गुण स्वरूप में सदा-सदा के लिए अभिन्न करके परोपकार और महा-परोपकार के गुरप्रसाद की प्राप्ति करा देता है। हृदय का पूर्ण सत्यवादी अनुपालन हमें अमृत का दाता बना देता है। नाम अमृत एक डोर है, एक अंदरूनी डोर, जिसको जब हम पकड़ लेते हैं, और अनादि राह की ओर बढ़ने के लिए इसका उपयोग करते हैं तो यह हमें परमात्मा तक ले जाती है। नाम अमृत एक सीढ़ी है जो हमें सच खंड में ले जाती है। नाम अमृत हमें भीतर और बाहर से पूर्ण ‘सचियारा’ (सत्यवादी) बना देता है। नाम अमृत हमारे हृदय को पूर्ण ‘सचियारी रहत’ (सत्यवादी अनुपालन) में ले जाता है। नाम अमृत हमें एक-दृष्ट, ‘निरवैर’ (शीलवंत) , निर्भय, दयालु, विनम्रता से भरपूर, घमंड-रहित, बलिदानी, प्यार करने वाला और सारी सृष्टि का सहायक बना देता है। नाम अमृत हमारे हृदय को सारे ब्रह्म गुणों से भरपूर कर देता है। नाम अमृत हमारे सारे मानसिक रोगों और विकारों का नाश कर देता है। नाम अमृत हमारे सारे पाप कर्मों का विनाश कर देता है। नाम अमृत हमारे सारे कर्मों का लेखा जोखा पूरा कर देता है। नाम अमृत हमें माया के चंगुल से आज़ादी दिला देता है। नाम अमृत हमें त्रय गुण माया से परे ले जाकर सर्व-शक्तिमान सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर के दर्शन की महान गुरकृपा और गुरप्रसाद के वरदानों की प्राप्ति करा देता है। नाम अमृत हमारे हृदय को सारे ब्रह्म गुणों से भरपूर करके सारी ब्रह्म शक्तियों से अलंकृत कर देता है। नाम अमृत हमें पूर्ण ब्रह्म ज्ञान और ‘आतम रस अमृत’ से सराबोर कर देता है। नाम अमृत हमें पूर्ण तत्व ज्ञान के वरदानों वाले महान और परम शक्तिशाली गुरप्रसाद की प्राप्ति करा देता है। नाम अमृत हमें परम पद की प्राप्ति करा देता है। नाम अमृत हमें अटल अवस्था में ले जाता है। नाम अमृत हमें परम ज्योत पूर्ण प्रकाश के साथ सुशोभित कर देता है। नाम अमृत हमारे हृदय को असीमता में ले जाता है। नाम अमृत हमें दरगाह में सम्मान दिलाता है। नाम अमृत सदा-सदा के लिए दरगाह में हमारा स्थान सुनिश्चित कर देता है। नाम अमृत हमारे हृदय में निवास बना कर हमें जीवन मुक्त कर देता है। नाम अमृत हमें अकाल पुरुष के निर्गुण स्वरूप में सदा-सदा के लिए अभिन्न करके परोपकार और महा-परोपकार के गुरप्रसाद की प्राप्ति करा देता है। नाम अमृत हमें अमृत का दाता बना देता है। जिस हृदय में नाम का प्रकाश हो जाता है, उस हृदय पर माया का कोई प्रभाव नहीं होता है। वह आत्मा और वह मन जो नाम सिमरन में डूबे रहते हैं, इतने स्थिर हो जाते हैं कि माया द्वारा विचलित नहीं होते हैं। नाम अमृत गुरप्रसाद है और इसका वर्णन गुरबाणी की पहले ही पंक्ति ‘ੴ सति नाम’ में है, जिसको मूल मंत्र कहा जाता है। हम परमात्मा को कैसे प्रसन्न कर सकते हैं ताकि वह हमको अपने किसी पूर्ण संत, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी द्वारा नाम का गुरप्रसाद दिला कर कृतज्ञ करे? यह एक पूरी सच्चाई है, और हमें यह मानना होगा कि हम स्वयं ही अपने प्रारब्ध को बनाने के लिए ज़िम्मेवार हैं। हम जो भी बीज आज बोयेंगे, भविष्य में किसी जन्म में जाकर उसे काटेंगे; हमने जो भी पूर्व-जन्मों में बोया है, उसे हम आज काट रहे हैं। अगर हम सिर्फ अच्छे कर्म, ‘सचियारे’ (सत्यवादी) कर्म और सतो-कर्म बोयेंगे, और नाम सिमरन करके नाम का बीज बोयेंगे, तो यह सुनिश्चित है कि हमारे सारे पिछले पाप कर्म धुल जायेंगे और हम गुरप्रसाद की प्राप्ति करने के योग्य हो जायेंगे।

इसलिए जब तक हम नाम के गुरप्रसाद की प्राप्ति की मंज़िल तक नहीं पहुँच जाते, हमें चाहिए कि हम:-

  • सतो-कर्म एकत्रित करना जारी रखें।
  • गुरप्रसाद के लिए प्रार्थना करना जारी रखें।
  • हमारे रोजमर्रा के कामकाज को जितना सत्यवादी हो सके बनाने पर ध्यान केंद्रित रखें।
  • अपने सारे कार्यों और कर्मों पर ध्यानपूर्वक एक नज़र डालें और यह सुनिश्चित करें कि हम माया के रजो और तमो गुणों के द्वारा विचलित न हों।
  • अपने आप को हमेशा प्रार्थना में लगाये रखें, दिन-रात ऐसे असति-कर्मों के लिए क्षमा की प्रार्थना करते रहें जो कि हमने अपनी दिनचर्या के दौरान माया के रजो और तमो गुणों के प्रभाव में आकर किये हों।

इस प्रकार से, धीरे-धीरे पर निश्चय ही, हमारा व्यवहार शुद्ध होना आरम्भ हो जाएगा और हमारे कर्म और अधिक सच्चे होने शुरू हो जायेंगे। परमात्मा हमारी ओर दयालु स्वभाव से देखेगा और हमारे ऊपर अपनी कृपा का गुरप्रसाद बरसा देगा। हमें सति पारब्रह्म पिता परमेश्वर की कृपादृष्टि की प्राप्ति होगी, और हमारी बंदगी कर्म खंड में चली जायेगी। इस प्रकार हमारा दरगाह में नाम का खाता खुल जाएगा। एक बार जब हम गुरप्रसाद प्राप्त कर लेते हैं तो गुर (ईश्वर) और गुरु के प्रति पूर्ण प्रतिज्ञा के साथ अपना तन-मन-धन अर्पित करके, पूर्ण बंदगी की राह पर चलते हुए और इस अनमोल रत्न गुरप्रसाद की सेवा-देखभाल करते हुए, हम हृदय की पूर्ण ‘सचियारी रहत’ (सत्यवादी अनुपालन) की प्राप्ति कर लेते हैं। गुर एवं गुरु के सति-चरणों में पूर्ण समर्पण माया के विरुद्ध संघर्ष के लिए दूसरा अस्त्र है। गुर तथा गुरु के सति-चरणों में पूर्ण समर्पण एक दरगाही नियम है, एक दरगाही आदेश है; इसलिए पूर्ण बंदगी के गुरप्रसाद की प्राप्ति के लिए हमें पूर्ण रूप से अपने आप को गुर और गुरु के आगे समर्पण कर देने की आवश्यकता होती है। तत्पश्चात हम रूहानी सीढ़ी पर चढ़ते ही जाते हैं। हम माया को परास्त कर इसके रजो और तमो गुणों के ऊपर जीत प्राप्त कर लेते हैं। माया से लड़ाई करने के कुछ और अस्त्र-शस्त्र हैं:-

  • गुरबाणी का दैनिक जीवन में पालन बहुत ही महत्त्व रखता है। गुरबाणी हमारे भीतर विनम्रता लाती है, और यह विनम्रता हमारे अहम् का नाश कर देती है। गुरबाणी को केवल पढ़ना या सुनना, और यह सोचना कि यह अपने आप में एक अच्छा कार्य है, ठीक नहीं है। गुरबाणी को पढ़ें, गायें और सुनें, और इसको अपने आचरण में भी लेकर आएं। दूसरों को क्षमा कर देने की भावना अपने अंदर विकसित करने से हमारा क्रोध ख़त्म हो जाता है। अपने परिवार को गुर-संगत मान कर प्रेम करने से हम मोह से मुक्त हो जाते हैं। हरेक को संगत की तरह प्यार करने से और उसका सत्कार करने से हमारे अंदर मोह समाप्त हो जायेगा, और यह पवित्र तथा शुद्ध प्रेम सब प्राणियों की ओर समान-रूप धारण कर लेगा एवं हमारे अंदर एक -दृष्ट की भावना लेकर आएगा।
  • दसवंध (कमाई का दसवां भाग) देने से हम धन के प्रति लालसा और सांसारिक दौलत की ओर लगाव से मुक्ति पाते हैं। गुरु को दसवंध प्रदान करने से हम दुनियावी धन-दौलत के लालच और लगाव से मुक्त हो जाते हैं।
  • सति-संतोष का पालन करने से हम सांसारिक वस्तुओं की कामना से मुक्ति पाते हैं और अपनी इच्छाओं पर काबू पा लेते हैं।
  • पर-निंदा से अपने आप को रोकने से हमारे अंदर घृणा और द्वेष समाप्त हो जायेंगे। इससे हमारे अंदर समाज के हर एक व्यक्ति के प्रति सत्कार की भावना का विकास होगा और हम एक -दृष्ट और निरवैर (शीलवंत) बन जायेंगे।
  • अपने अवगुणों पर ध्यान लगाने से और दूसरों की ओर उंगली न उठाने से हमें यह एहसास हो जाएगा कि हम स्वयं कितने बुरे हैं और हमें अपने आप को सुधारने के लिए क्या करने की आवश्यकता है।
  • आंतरिक दीनता, और एक गरीबी-वेश हृदय की पालना हमें विनम्र बनाती है और हमारी आत्मा और हमारे मन के अंदर विनम्रता लाती है। । भरपूर विनम्रता ही दरगाह की कुंजी है।
  • अपने आप को हरेक से नीचा समझने से हमारे मन और आत्मा में विनम्रता आ जाती है। गरीबों की मदद करने से और उनकी भलाई के लिए दान करने से हमारे अंदर दयालुता का विकास होता है, बशर्ते कि हम यह मदद और दान एक निष्काम सेवा की तरह करें – बिना किसी फल या सम्मान की कामना किये। इच्छाएँ केवल नाम सिमरन से ही समाप्त की जा सकती हैं। इसलिए दूसरों की सेवा करते हुए नाम सिमरन करने से यह सेवा निष्काम बन जाती है।
  • गुर, गुरु तथा गुर-संगत को सबसे बढ़कर मानने से और बिना शर्त भक्ति और प्रेम करने से हमारे अंदर बहुत अधिक आध्यात्मिकता आती है।

उपरोक्त दर्शाये ये अस्त्र-शस्त्र और स्वर्ण-नियम माया के विरुद्ध संघर्ष में आसानी से लड़ाई करने में आपकी मदद करेंगे। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारा मन शांत कर सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारे हृदय को अमृत से भरपूर कर सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारे हृदय के अंदर परम ज्योत पूर्ण प्रकाश को प्रकट कर सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारे मन को ज्योत में बदल सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारी सारी कर्म-इन्द्रियों और ज्ञान-इन्द्रियों को पूर्ण हुक्म के अधीन कर सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारी तृष्णा की आग को बुझा सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही इस ‘कूड़’ (मिथ्या, झूठापन) की दीवार को तोड़ कर हमें अकाल पुरुष में अभिन्न करा सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें जीवन मुक्त बना सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें परम पद की प्राप्ति करा सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें पूर्ण ब्रह्म ज्ञान और पूर्ण तत्व ज्ञान के वरदान दिला सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें दरगाह में मान प्राप्त करा सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारे हृदय को एक संत-हृदय बना सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें परोपकार और महा-परोपकार की सेवा दिलाने का सामर्थ्य रखती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें अमृतधारी बना सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमें गुरप्रसाद बाँटने के सामर्थ्य का वरदान दिला सकती है। केवल माया के ऊपर जीत ही हमारे हृदय को सच खंड बना सकती है।